शनिवार, 29 अगस्त 2009

महान कौन

निसंदेह महान लोग महान होते होंगे। लेकिन केवल वही महान नहीं होते, जो प्रसिद्ध पा जाते हैं। केवल वही महान नहीं होते जो गांधी जी की तरह समाज की चिंता में अपने को पारिवारिक सरोकारों से इस कदर अलग कर लेते हैं, कि उनकी संताने कुंठाग्रस्त हो जाती हैं। वे लोग भी महान होते हैं, जो पारिवारिक सरोकारों के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति सचेत और सजग रहते हैं। भले ही उनका दायरा अपने घर गांव शहर तक ही सीमित रहता हो।मैं अपने बारे में सोचता हूं। पत्रकारिता में होने की वजह से मेरी प्रसिद्धि का दायरा मेरे परिवार के अन्य लोगों की अपेक्षा थोड़ा अधिक है। हालांकि पत्रकारिता का उल्लेख करना भी मेरी धूर्तता है। वास्तव में पत्रकारिता के स्थान पर मुझे नौकरी शब्द का उल्लेख करना चाहिए, जिसकी वजह से मैं अपने पारिवारिक सरोकारों को अकसर उपेक्षित कर देता हूं। कृपया रेखांकित कर लें। परिवार से मेरा तात्पर्य मात्र पत्नी और बच्चों से ही नहीं है। मेरे लिए परिवार का अर्थ मेरे गांव में रहने वाला वह पूरा कुनबा है, जिसमें मेरे दर्जनों भाई हैं, दर्जनों बहने हैं। बुआ हैं, चाचियां हैं, दादा हैं चाचा हैं। भतीजे हैं, भतीजियां हैं और कई पौत्र और पौत्रियां तो हैं, कुछेक प्रपौत्र और प्रपौत्रियां भी हैं। कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि मेरे नौ साल के पुत्र उत्कर्ष भी बेटी दामाद वाले हो चुके हैं। हो चुके हैं नहीं बल्कि पैदा होने से पहले ही चुके थे।मुझसे छोटे मेरे एक भाई हैं, रमेशदत्त तिवारी। अपने पिता की चार संतानों में सबसे छोटे। एक बड़े भाई थे, उनके बाद दो बहनें और फिर रमेश हैं। सुलतानपुर में वकालत करते हैं। चाचा जी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। चाचा जी का निधन तभी हो गया था, जब हम बहुत छोटे थे। हालांकि चाचा जी के पास अच्छी खेती थी। लेकिन वह खुद नौकरी करते थे, इसलिए खेती कराने वाले कोई नहीं था। बड़े पुत्र रामचंद तिवारी में तीनों गुण थे। अक्खड़, फक्कड़ और घुमक्कड़। आर्थिक प्रबंधन तो जानते ही नहीं थे। सो चाचा जी की भेजी रकम और कृषि उपज उन्हें पूरी नहीं पड़ती थी। कर्जा लेने में भी संकोच नहीं करते। लेकिन छोटे भाई और बहनों के प्रति कभी किसी चीज में उन्होंने कोताही नहीं की। सबको पढ़ाया लिखाया। शादी ब्याह किया। चाचा जी इन सब समारोहों में महज एक न्योताहरू की तरह उपस्थित हो जाते थे, बस। रमेश के बीए में पहुंचने तक चाचा जी सेवानिवृत्त होकर घर आ गए। लेकिन घर की आर्थिक हालत तब तक बदहाल हो चुकी थी। जब तनख्वाह से पूरा नहीं पड़ता था तो पेंशन से कैसे पूरा पड़ जाता। रमेश ने बीए के बाद ला किया और फिर सुलतानपुर में वकालत करन लगे। सुबह और छुट्टी वाले दिन खेती के काम देखते। इसका असर यह हुआ कि दो सालों में ही सब कुछ बदल गया। जमीन तो कम थी ही नहीं। उन्नत तरीके से खेती होने लगी तो उपज इतनी होने लगी कि बड़ी मात्रा में अनाज बेचा भी जाने लगा। रमेश मेहनती तो हैं ही, सो उनकी वकालत भी अच्छी चलने लगी। सामाजिक कार्यों में उनकी भागीदारी ने उन्हें लोकप्रियता भी दिला दी। बड़े भाई रामचंद्र ग्राम प्रधान बन गए। लेकिन इस बीच रमेश को कई असहनीय झटके झेलने पड़े। पांच साल के छोटे पुत्र की सड़क हादसे में मौत हो गई। प्रधान भइया की बेटी के पति का निधन हो गया। बड़ी बहिन के पति का असामयिक निधन हो गया। भांजे की पत्नी भी नहीं रही। तीन वर्ष पहले 55 की उम्र में ही प्रधान भइया भी साथ छोड़ गए। बावजूद इतने बड़े सदमों के रमेश कभी विचलित नहीं हुए। अपनी बेटी का विवाह किया। भाई की बेटी का दूसरा विवाह किया। उनके बेटे का विवाह किया। अपने बेटे सुनील को उच्च शिक्षा दिलाई। वह योग पर शोध कर रहा है। अभी हाल ही में रमेश को फिर एक झटका लगा।16 अगस्त को छोटी वाली बहिन के पति की करंट से मौत हो गई। उस बेचारी को भी भगवान ने कई दुख दिए। कुछ साल पहले किशोरावस्था में बेटा मर गया और अब पति ने साथ छोड़ दिया। वह और उसका परिवार लुधियाना में रहता है। रमेश तुरंत लुधियाना पहुंचे। आज यानी 29 अगस्त को रमेश फिर लुधियाना में हैं, क्योंकि जीजा जी की तेरही है। मैं चंडीगढ़ में होते हुए भी नहीं जा पाया। कल जाऊंगा। सोच रहा हूं। देखिए जा भी पाता हूं कि नहीं। कहते हैं वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है, जो सारे घाव भर देता है। बहिन इस सदमे से शायद ही कभी उबर पाए। लेकिन मैं रमेश को जानता हूं। वह जीजा जी के न रहने पर उपजी परिस्थियों को दृष्टिगत रखते हुए बहिन और उसके बच्चों के लिए भविष्य की योजना बनाएंगे। फिर उस क्रियान्वित करने में अपनी तय शुदा भूमिका के अनुरूप पूरा योगदान करेंगे। वह मंगलवार को सुलतानपुर पहुंच कर रोजाना की तरह कचहरी करने लगेंगे। गांव परिवार की सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने से कतराने के लिए इस हादसे का सहारा नहीं लेंगे। मैं समझता हूं कि हम जैसे लोगों की अपेक्षा जो सामाजिक सरोकारों पर अखबारों के पन्ने रंगते हैं, रमेश महान हैं। भले ही उनकी महानता के चर्चे अखबारों में न हों, किताबों में न हों।

4 टिप्‍पणियां:

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

प्रिय जगदीश जी आपकी पोस्ट तो यदा कदा ही दिखती है. जब भी फ़ीड मे दिखती है, मन बिछुडे मित्र से मिलने जैसा उत्साहित और उमंगित हो जाता है.

बडे उमंग से यहां पहुंचा था ..पूरी पोस्ट पढकर अति वेदना हुई, आपके दुख मे साझा हूं. रमेश जी के प्रति पुर्ण सहानुभूति है. उनके जैसे लोग आजकल कम ही पाये जाये हैं. रमेशजी के लिये हमारे मन मे बहुत सम्मान बढ गया है. ईश्वर सभी को उनसे प्रेरणा लेने की बुद्धि दें.

आप जब भी उनसे मिलें हमारा प्रणाम कहें.

रामराम.

Smart Indian ने कहा…

पढ़कर दिल द्रवित हो गया. कभी-कभी सोचता हूँ कि ईश्वर भी अपने बन्दों की कैसी-कैसी परीक्षाएं लेता रहता है.

रवि धवन ने कहा…

सच में महानता से रूबरू करवाया आपने. आपकी भाषाशैली मुझे कई बार प्रेमचंद जी की याद दिला जाती है.

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

भाई जगदीश आपका लिखा पढ़ कर आँखें नम हो गई | इसे कहते हैं सार्थक लेखन |

आपने तो इतने सुन्दर शब्दों मैं कह ही दिया की महान कौन है ! मैं आपसे अक्षरसः सहमत हूँ की हम जैसे लोगों की अपेक्षा जो सामाजिक सरोकारों पर ब्लॉग या अखबारों के पन्ने रंगते हैं, रमेश महान है |