रविवार, 23 अक्तूबर 2011

दीपावली आई

दीपावली आई है। आप को बधाई है। मुस्कराइए क्योंकि मतदाता महान है। भाजपा-हजकां के चेहरे पर मुस्कान है। इनेलो आशावान है। कांग्रेस हलकान है। ट्रैकटर चल गया है, हाथ कुचल गया है,चश्मे का नंबर बदल गया है। हिसार में हार ने कर दिया बीके हरिप्रसाद का स्वाद खराब है तो चौटाला के चेहरे की चमक लाजवाब है। कुलदीप को मिल गया खुशियों वाले कमल का तालाब है। क्या हुआ जो किसान बदहाल हैं। कोई नहीं उनका पुरसाहाल है। बाजार से गायब डीएपी है। बढ़ रहा उनका बीपी है। धान की गिरती कीमतों ने कर दिया बदहाल है। लेकिन इन मुद्दों पर नहीं उठता सवाल है। क्योंकि टीम अन्ना को लेकर हो रहा बवाल है। अपने केजरीवाल पर कहीं चप्पल तो कहीं शब्दबाणों के प्रहार हैं। वाटरमैन राजेंद्र सिंह कर रहे आरोपों की बौछार हैं तो अग्निवेश भी बदला लेने के लिए बेकरार हैं। लेकिन कर नहीं पा रहे केजरीवाल को हलाल हैं क्योंकि म्हारे हरियाणा के छोरे के पास ईमानदारी की ढाल है। हम भी उसके साथ हैं लेकिन आजकल तंग जरा हाथ हैं। सो,आप का गिफ्ट वाला डिब्बा जरूरी है। हमने दिला दी आपके प्रोजेक्ट को मंजूरी है। इसका ध्यान रखिएगा भाई। बाजार में बिक रही नकली मिठाई। इसलिए डिब्बे में हो सिर्फ ऊपर की कमाई। वह डिब्बा होगा तुम्हारी खुशियों की चाभी। शाम को इंतजार करेंगी तुम्हारी भाभी। लेकिन डिब्बा उन्हें तभी देना। जब आसपास नजर दौड़ा लेना। वरना दीवाली काली हो जाएगी लाले। अगर कहीं इधर-उधर छिपे हुए विजिलेंस वाले।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

मोदी कह रहे होंगे, शुक्रया हेडली

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी आतंकी डेविड कोलमैन हेडली को आज धन्यवाद दे रहे होंगे। देना भी चाहिए। कभी जिस इशरत जहां को हथियार बना कर उन पर हमले किए जा रहे थे। उस इशरत जहां की हकीकत हेडली ने बयान कर दी है। बात आज के छह साल पहले की है। गुजरात में चार आतंकी मुठभेड़ में मारे गए थे। इनमें एक तरुणी थी। नाम था इशरत जहां। तब नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुहिम छेड़े हुई कथित धर्म निरपेक्ष मीडिया ने उस मुठभेड़ पर सवाल उठाते हुए हल्ला मचा दिया था। हल्ला क्या मचा दिया था। बवाल कर दिया था। जिसे जहां मिला उसने वहीं लिख मारा।सारे इशरत जहां को निर्दोष और पढ़ने लिखने वाली छात्रा बता रहे थे। हालांकि गुजरात पुलिस ही नहीं केंद्रीय गुप्तचर एजेंसियों ने भी उसके आतंकी होने की पुष्टि की थी। लेकिन उससे क्या? अपनी बिरादरी को नरेंद्र मोदी को निशाना बनाने का बहाना चाहिए था। जो उन्हें मिल गया था। दिलचस्प बात यह थी कि हल्ला मचाने वाले इशरत जहां की बात तो कर रहे थे। लेकिन उसके साथ मारे गए पाकिस्तानी आतंकियों को लेकर चुप थे। उनके बात इस बात का जवाब नहीं था कि इशरत अगर छात्रा थी तो उसकी दोस्ती उन पाकिस्तानी आतंकियों से कैसे हुई। क्यों हुई? बाद में जब जांच एजेंसियों ने इस बात के दस्तावेजी सुबूत दे दिए कि इशरत उन आतंकियों के साथ अयोध्या भी गई थी। उनका इरादा वहां भी विस्फोट करने का था तो भाई लोग चुप्पी साथ गए। अब देखते हैं भाई लोग क्या करते हैं? इशरत जहां के बारे में डेविड कोलमैन हेडली के नए खुलासे के बाद। क्योंकि हेडली ने खुलासा किया है कि इशरत जहां मानव बम थी। नाचीज जिस समूह में काम करता है, उसकी वेबसाइट पर यह खबर प्रकाशित हो चुकी है। आप खुद ही पढ़ लें।

इशरत जहां थी एक मानव बम

नई दिल्ली. लश्कर-ए-तैय्यबा से जुड़े अमेरिकी आंतकी डेविड हेडली ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के सामने खुलासा किया है कि गांधीनगर में पुलिस मुठभेड़ के दौरान मारी गई इशरत जहां लश्कर की मानव बम थी। सूत्रों ने बताया कि हेडली ने मुंबई की रहने वाली इशरत जहां के बारे में यह जानकारी एनआईए और कानून विभाग के अधिकारियों की चार सदस्यीय टीम को शिकागो में पूछताछ के दौरान दी। यह भी पता चला है कि हेडली ने भारत में लश्कर के लिए अपने आतंकी मिशन-2006 में शुरू किया था। इशरत जहां की मौत से खासा विवाद पैदा हुआ था।
पुख्ता हुई खुफिया सूचना
हेडली द्वारा दी गई यह सूचना गुजरात पुलिस और केंद्र की सूचना से मेल खाती है। इशरत के परिवार वालों के इस आरोप के बाद मुठभेड़ को लेकर बवाल मच गया था कि इशरत छात्रा थी। उसके परिवार वालों ने अदालत में इस संबंध में अपील भी दाखिल की थी। गुजरात पुलिस ने दावा किया था कि कुछ आतंकी राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमले के लिए राज्य गुजरात आए थे। इशरत, जावेद शेख उर्फ प्राणोश पिल्लै और दो पाकिस्तानी नागरिक अमजद अली और जीशान जौहर अब्दुल गनी 15 जून 2004 को मुठभेड़ में मारे गए थे। पुलिस रिकार्ड के मुताबिक इन सभी को अहमदाबाद शहर के बाहरी इलाके में नीले रंग की इंडिका कार में पकड़ा गया था। कार रोकने का संकेत करने पर उसमें बैठे लोगों ने पुलिस पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं, जिसके बाद हुई जवाबी कार्रवाई में ये सभी मारे गए थे। इशरत की मां शमीमा कौसर ने गुजरात हाईकोर्ट में दाखिल अपनी याचिका में दावा किया था कि उनकी बेटी इत्र के कारोबारी शेख के साथ सेल्सगर्ल के रूप में काम कर रही थी।
क्या है मामला
15 जून 2004 को गुजरात पुलिस ने इशरत जहां, जावेद शेख उर्फ प्राणोश पिल्लै और दो पाकिस्तानी जीशान जौहर अब्दुल गनी और अमजद अली को एक मुठभेड़ में मार गिराया। पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक इन सभी को अहमदाबाद शहर के बाहरी इलाके में नीले रंग की इंडिका कार में पकड़ा गया था। कार रोकने का संकेत करने पर उसमें बैठे लोगों ने पुलिस पर गोलियां चलानी शुरू कर दी, जिसके बाद हुई जवाबी फायरिंग में ये सभी मारे गए।
फर्जी मुठभेड़ बताया
इशरत के परिवार वालों ने इस इनकाउंटर को फर्जी बताते हुए अदालत की शरण ली। इशरत की मां शमीमा कौसर ने गुजरात उच्च न्यायालय में दाखिल अपनी याचिका में दावा किया कि उनकी बेटी इत्र के कारोबी शेख के साथ सेल्स गर्ल के रूप में काम कर रही थी।
इनकाउंटर करने वाली टीम
इस इनकाउंटर की अगुवाई सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ कांड में आरोपी डीआईजी डीजी वंजारा ही कर रहे थे। पुलिस का कहना था कि ये लोग नरेंद्र सिंह मोदी को निशाना बनाने के लिए आए थे।
आतंक में हुस्न का मेल
हेडली के बयान से स्पष्ट हो रहा है कि आतंकी देश में अपने काम को अंजाम देने के लिए ‘हुस्न’ का सहारा ले रहे हैं।


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गुरुवार, 3 जून 2010

शुक्रवार, 28 मई 2010

नक्सिलयों से नरमी क्यों

मुट्ठी भर नक्सली देश के सत्ता को चुनौती दे रहे हैं। हमारी सरकार परंपरात रूप से बड़े हमले के बाद कड़ी कार्रवाई और सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद करने का बयान दे देती है। हमारे गृह मंत्री कुछ ईमानदार हैं, सो थोड़ी बहुत हिचकिचाहट के साथ यह स्वीकार कर लेते हैं कि उनके हाथ बंधे हैं। नक्सलियों से निपटने के लिए हमारे पास अधिकार नहीं हैं। और उसके बाद वित्त मंत्री का नसीहत भरा बयान आ जाता है कि यह भीतर की बात है। चिदंबरम को इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिए। इतना सुनने के बाद बेचारे चिदंबरम फिर बैकफुट पर चले जाते हैं। नक्सलियों से कहते हैं कि भाई आप केवल बहत्तर घंटे के लिए हिंसा रोक दें। हमसे बातचीत कर लें। लेकिन नक्सली उनकी पेशकश ठुकरा देते हैं। और फिर एक बड़ी वारदात हो जाती है। इस बार पश्चिम बंगाल में रेलवे ट्रैक उड़ा दिया जाता है और मुंबई जा रही एक्सप्रेस गाड़ी हादसे का शिकार हो जाती है। और ७६ जानें चली जाती हैं।
जाहिर है कि पहले की तरह इस बार भी परंपरागत रूप से वही बयान जारी किए जाएंगे, जो पहले जारी किए जाते थे। और कुछ ही दिन बाद नक्सली नई वारदात कर फिर बड़ी संख्या में लोगों को मार डालेंगे। सवाल यह है कि ऐसा कब तक होगा। हालांकि इसका जवाब किसी के पास नहीं है। नक्सली भी अन्य आतंकियों की तरह बेगुनाह लोगों की जान लेते रहेंगे। कभी कभार उनका कोई कमांडर पकड़ लिया जाएगा तो जेल में उसे सारी सुख सुविधाएं दी जाएंगी। अदालत ने अगर उसे फांसी भी दे दी तो सरकार उसकी फाइल को लटकाए रहेगी। और ऐसा इसलिए क्योंकि नक्सली भी कथित रूप से वामपंथी हैं। सरकार और मीडिया में बैठे वामपंथी बुद्धिजीवियों को लगता है कि इस देश को खतरा केवल और केवल प्रखर हिंदूवादियों से है। थोड़ा बहुत खालिस्तानियों से भी है। लेकिन मुसलिम आतंकियों से नहीं.। वे तो राह भटके हुए हैं। उन्हें माफ कर मुख्य धारा में लाना चाहिए। उनकी नजर में नक्सली हमारे अपने हैं। नक्सली हों मुसलिम आतंकी सेना या पुलिस के जवान उन्हें प्रताड़ित करते हैं। मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। उनकी निंदा की जानी चाहिए। दिल्ली का बटला हाउस कांड हो गुजरात का सोहराबुद्दीन कांड सब साजिश थी। रही बात ईसाई मिशनरियों की तो वे तो सेवा करते हैं। शांति का प्रचार करते हैं।
जाहिर है, ऐसी स्थिति में तो न आतंकी हमले रुकने वालें हैं और न ही नक्सली। सो देशवासी इस तरह के हमले झेलने को तैयार रहें। हालांकि इस स्थिति के जिम्मेदार भी वे खुद ही हैं। उन्हें भी तो मतदान के समय इस बात का ध्यान नहीं रहता।

सोमवार, 31 अगस्त 2009

जाल के जरिए जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद

वे रोजी-रोटी हासिल करने के सिलसिले में विदेश में रह रहे हैं। लेकिन उनकी आत्मा भारत में बसती है। सो अंतरजाल पर ब्लॉगिंग के जरिए वे अपनी जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद करते रहते हैं। उनके भीतर कसक है कि हमारी हिंदी अंतरजाल पर किसी अन्य भाषा से कमतर न रहे। बहुत हद तक उन्होंने ब्लॉगिंग की दुनिया में हिंदी को प्रतिष्ठित करने में कामयाबी पाई है। समीर लाल, अनुराग शर्मा, राज भाटिया, राकेश सिंह और बबली जैसे कई ब्लॉगर हैं, जो हिंदी ब्लॉगिंग में नए कीर्तिमान गढ़ रहे हैं।समीरलाल की उड़नतश्तरी कनाडा से जबलपुर तक उड़ रही है। हिंदी का शायद ही ऐसा कोई ब्लॉगर हो, जो अपरिचित हो। बुजुर्ग हो चले समीर पेशे से कंसलटेंट हैं। और कनाडा के एंजेक्स (ओंटारियो) में रहते हैं। हिंदी के हर नए ब्लॉगर को प्रोत्साहित करना उनका शगल है। उन्हें हिंदी ब्लॉगरों का इस कदर स्नेह हासिल है कि अभी कुछ दिन पहले उनकी तबीयत खराब हुई तो पूरा हिंदी ब्लॉग जगत उनकी सलामती की दुआ करने लगा। उनके ब्लाग के बड़ी संख्या में पाठक हैं,जो उनकी लोकप्रियता की मिसाल है। बरेली के अनुराग शर्मा पिट्सबर्ग में रहते हुए भी खुद को बखूबी स्मार्ट इंडियन साबित कर रहे हैं। अच्छा लिखते हैं और कई विषयों की व्यापक जानकारी है। राज भाटिया जरमनी में रहत है। उन्होंने अपने ब्लॉग छोटी-छोटी बातें पर हिंदी के संदर्भ में महात्मा गांधी और महामना मदनमोहन मालवीय की उक्तियां भी लगा रखी हैं। झारखंड के रहने वाले युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर राकेश सिंह अमेरिका में रहते हुए भी हिंदी के उत्थान के लिए चिंतित रहते हैं। अपने ब्लॉग सृजन पर हिंदी की दुर्दशा के बारे में वह बहुत कुछ लिख चुके हैं। उनकी पीड़ा यह है कि हिंदी की स्तरीय पत्रिकाएं बंद होती जा रही हैं। क्वींसलैंड, आस्ट्रेलिया में रह रही हैं ३१ वर्षीय बबली कविता प्रेमी हैं। उनके ब्लॉग गुलदस्ता -ए-शायरी में गजलों के साथ दिए गए चित्र भी खूबसूरत होते हैं। ऐसे विदेश में रह रहे दर्जनों ब्लॉगर हैं, जो अंतरजाल के जरिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद करते रहते हैं।

शनिवार, 29 अगस्त 2009

महान कौन

निसंदेह महान लोग महान होते होंगे। लेकिन केवल वही महान नहीं होते, जो प्रसिद्ध पा जाते हैं। केवल वही महान नहीं होते जो गांधी जी की तरह समाज की चिंता में अपने को पारिवारिक सरोकारों से इस कदर अलग कर लेते हैं, कि उनकी संताने कुंठाग्रस्त हो जाती हैं। वे लोग भी महान होते हैं, जो पारिवारिक सरोकारों के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति सचेत और सजग रहते हैं। भले ही उनका दायरा अपने घर गांव शहर तक ही सीमित रहता हो।मैं अपने बारे में सोचता हूं। पत्रकारिता में होने की वजह से मेरी प्रसिद्धि का दायरा मेरे परिवार के अन्य लोगों की अपेक्षा थोड़ा अधिक है। हालांकि पत्रकारिता का उल्लेख करना भी मेरी धूर्तता है। वास्तव में पत्रकारिता के स्थान पर मुझे नौकरी शब्द का उल्लेख करना चाहिए, जिसकी वजह से मैं अपने पारिवारिक सरोकारों को अकसर उपेक्षित कर देता हूं। कृपया रेखांकित कर लें। परिवार से मेरा तात्पर्य मात्र पत्नी और बच्चों से ही नहीं है। मेरे लिए परिवार का अर्थ मेरे गांव में रहने वाला वह पूरा कुनबा है, जिसमें मेरे दर्जनों भाई हैं, दर्जनों बहने हैं। बुआ हैं, चाचियां हैं, दादा हैं चाचा हैं। भतीजे हैं, भतीजियां हैं और कई पौत्र और पौत्रियां तो हैं, कुछेक प्रपौत्र और प्रपौत्रियां भी हैं। कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि मेरे नौ साल के पुत्र उत्कर्ष भी बेटी दामाद वाले हो चुके हैं। हो चुके हैं नहीं बल्कि पैदा होने से पहले ही चुके थे।मुझसे छोटे मेरे एक भाई हैं, रमेशदत्त तिवारी। अपने पिता की चार संतानों में सबसे छोटे। एक बड़े भाई थे, उनके बाद दो बहनें और फिर रमेश हैं। सुलतानपुर में वकालत करते हैं। चाचा जी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। चाचा जी का निधन तभी हो गया था, जब हम बहुत छोटे थे। हालांकि चाचा जी के पास अच्छी खेती थी। लेकिन वह खुद नौकरी करते थे, इसलिए खेती कराने वाले कोई नहीं था। बड़े पुत्र रामचंद तिवारी में तीनों गुण थे। अक्खड़, फक्कड़ और घुमक्कड़। आर्थिक प्रबंधन तो जानते ही नहीं थे। सो चाचा जी की भेजी रकम और कृषि उपज उन्हें पूरी नहीं पड़ती थी। कर्जा लेने में भी संकोच नहीं करते। लेकिन छोटे भाई और बहनों के प्रति कभी किसी चीज में उन्होंने कोताही नहीं की। सबको पढ़ाया लिखाया। शादी ब्याह किया। चाचा जी इन सब समारोहों में महज एक न्योताहरू की तरह उपस्थित हो जाते थे, बस। रमेश के बीए में पहुंचने तक चाचा जी सेवानिवृत्त होकर घर आ गए। लेकिन घर की आर्थिक हालत तब तक बदहाल हो चुकी थी। जब तनख्वाह से पूरा नहीं पड़ता था तो पेंशन से कैसे पूरा पड़ जाता। रमेश ने बीए के बाद ला किया और फिर सुलतानपुर में वकालत करन लगे। सुबह और छुट्टी वाले दिन खेती के काम देखते। इसका असर यह हुआ कि दो सालों में ही सब कुछ बदल गया। जमीन तो कम थी ही नहीं। उन्नत तरीके से खेती होने लगी तो उपज इतनी होने लगी कि बड़ी मात्रा में अनाज बेचा भी जाने लगा। रमेश मेहनती तो हैं ही, सो उनकी वकालत भी अच्छी चलने लगी। सामाजिक कार्यों में उनकी भागीदारी ने उन्हें लोकप्रियता भी दिला दी। बड़े भाई रामचंद्र ग्राम प्रधान बन गए। लेकिन इस बीच रमेश को कई असहनीय झटके झेलने पड़े। पांच साल के छोटे पुत्र की सड़क हादसे में मौत हो गई। प्रधान भइया की बेटी के पति का निधन हो गया। बड़ी बहिन के पति का असामयिक निधन हो गया। भांजे की पत्नी भी नहीं रही। तीन वर्ष पहले 55 की उम्र में ही प्रधान भइया भी साथ छोड़ गए। बावजूद इतने बड़े सदमों के रमेश कभी विचलित नहीं हुए। अपनी बेटी का विवाह किया। भाई की बेटी का दूसरा विवाह किया। उनके बेटे का विवाह किया। अपने बेटे सुनील को उच्च शिक्षा दिलाई। वह योग पर शोध कर रहा है। अभी हाल ही में रमेश को फिर एक झटका लगा।16 अगस्त को छोटी वाली बहिन के पति की करंट से मौत हो गई। उस बेचारी को भी भगवान ने कई दुख दिए। कुछ साल पहले किशोरावस्था में बेटा मर गया और अब पति ने साथ छोड़ दिया। वह और उसका परिवार लुधियाना में रहता है। रमेश तुरंत लुधियाना पहुंचे। आज यानी 29 अगस्त को रमेश फिर लुधियाना में हैं, क्योंकि जीजा जी की तेरही है। मैं चंडीगढ़ में होते हुए भी नहीं जा पाया। कल जाऊंगा। सोच रहा हूं। देखिए जा भी पाता हूं कि नहीं। कहते हैं वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है, जो सारे घाव भर देता है। बहिन इस सदमे से शायद ही कभी उबर पाए। लेकिन मैं रमेश को जानता हूं। वह जीजा जी के न रहने पर उपजी परिस्थियों को दृष्टिगत रखते हुए बहिन और उसके बच्चों के लिए भविष्य की योजना बनाएंगे। फिर उस क्रियान्वित करने में अपनी तय शुदा भूमिका के अनुरूप पूरा योगदान करेंगे। वह मंगलवार को सुलतानपुर पहुंच कर रोजाना की तरह कचहरी करने लगेंगे। गांव परिवार की सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने से कतराने के लिए इस हादसे का सहारा नहीं लेंगे। मैं समझता हूं कि हम जैसे लोगों की अपेक्षा जो सामाजिक सरोकारों पर अखबारों के पन्ने रंगते हैं, रमेश महान हैं। भले ही उनकी महानता के चर्चे अखबारों में न हों, किताबों में न हों।

सोमवार, 3 अगस्त 2009

देखन मां बौरहिया, आवें पांचो पीर

सुलतानपुर मेरा गृह जनपद । भगवान राम के ज्येष्ठ पुत्र कुश का बसाया हुआ। सन 1094 में तक इसका नाम कुशभवन पुर था। कुतबुद्दीन ऐबक ने सुलतानपुर पर हमला किया और उसके बाद इसका नाम सुल्तानपुर रखा, जो आज तक चला आ रहा है। यह अलग बात है कि हम जैसे कुछ लोग इसे सुलतानपुर कहते हैं। अर्थात सुंदर लताओं से घिरा हुआ (नगर) पुर। एक अति प्राचीन नगर होने के बावजूद सुलतानपुर की सन 1975 के पहले तककोई खास पहचान नहीं थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने देश में आपात काल घोषित किया, उसी दौरान उनके कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी ने सुलतानपुर जनपद की दूसरी लोकसभा सीट अमेठी को अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना। हालांकि वह सन 77 के अपने पहले चुनाव में हार गए। इसके साथ ही सुलतानपुर और अमेठी देश-विदेश में चर्चा का विषय बन गए। संजय गांधी 80 में जीते और उसके बाद से अमेठी उस परिवार का लोकसभा क्षेत्र बन गया। उसके बाद से तो सुलतानपुर और अमेठी को पूरी दुनिया जानने लगी। मेरा आशय आपको सिर्फ सुलतानपुर से परिचित कराना नहीं है। लेकिन जो बात मैं बताना चाहता हूं, उसके लिए सुलतानपुर के बारे में कुछ मूलभूत जानकारी देना आवश्यक था। तराइन के मैदान में मुहम्मद गोरी से पृथ्वीराज चौहान के पराजित हो जाने के बाद उनके परिवार के चार राजकुमार (जो रिश्ते में पृथ्वीराज के भाई थे) भाग निकले। उनका उद्देश्य था कि कुछ दिनों बाद सैन्य शक्ति से लैस होकर फिर गोरी से भिड़ेंगे। वे अज्ञातवास के क्रम में कुशभवन पुर पहुंचे। यहां उस समय भर राजा का शासन था। भर राजा ने उन्हें शरण दी और कुछ रियासतें दे दीं। गोरी के लौट जाने के बाद दिल्ली के तख्त पर बैठे कुतबुद्दीन ऐबक के गुप्तचरों को पृथ्वीराज चौहान के भाग निकले चारो भाइयों और उनके उद्देश्य के बारे में जानकारी थी। सो कुतबुद्दीन ने उनका पता लगाने के लिए गुप्तचरों से कहा। गुप्तचरों की कई टोलियां पूरे देश में निकल पड़ीं। पांच गुप्तचरों की एक टोली सुलतानपुर पहुंची। उल्लेखनीय है कि उसके पहले महमूद गजनवी का आक्रमण देश पर हो चुका था। उसके भांजे सैयद मसूद गाजी को बहराइच में सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू राजाओं ने पराजित किया था और मार गिराया था। उसकी सेना के कुछ सैनिक जो अक्षम हो गए थे वे यहीं रहने लगे थे और बतौर फकीर भिक्षा मांग कर गुजर करते थे। यह बताने का तात्पर्य यह कि कुछ मुस्लिम इन फकीरों के रूप में उस समय अवध में आ चुके थे। कुशभवन पुर में भी एक मुस्लिम बुढिय़ा रहती थी, जो जन्मी तो किसी हिंदू परिवार में थी लेकिन किसी फकीर से शादी कर मुसलमान हो गई थी। पांचों ने उसी बुढिय़ा की झोपड़ी को अपना ठिकाना बनाया। उसके बाद अपना काम शुरू किया। इस बीच सुलतानपुर के राजा के गुप्तचरों को उनके बारे में जानकारी हो गया। उन्होंने उन पांचों को पकडऩा चाहा। पांचों भागे। लेकिन हिंदू सैनिकों ने उन्हें मार गिराया। इस तरह उनका तो अंत हो गया, लेकिन काफी दिनों तक जब वे दिल्ली नहीं पहुंचे और पृथ्वीराज के चारो भाइयों के बारे में भी कोई पता नहीं चला तो दिल्ली से एक गुप्तचार उन पांचों की खोज में रवाना हुआ। चूंकि यह जानकारी थी कि पांचों कुशभवन पुर गए थे। इसलिए वह सीधा सुलतानपुर पहुंचा। उसने भी बुढिय़ा को तलाश कर लिया। क्योंकि नगर में वही एक मात्र गैर हिंदू थी। उसे बुढिय़ा ने सारी घटना बता दी। उसने दिल्ली लौट कर सारी जानकारी ऐबक को दी। ऐबक ने कुशभवन पुर पर आक्रमण किया। हिंदू राजा को पराजय का सामना करना पड़ा। उसने वहां के सारे क्षत्रियों को उनकी जाति पूछ कर मारना शुरू किया। जो भी अपने को चौहान बताता मौत के घाट उतार दिया जाता। इससे बचने के लिए बहुत से चौहान क्षत्रियों ने खुद को चौहान के बजाय वत्सगोत्री बता दिया। अब वे बजगोती कहे जाते हैं। ऐबक ने कुशभवन पुर का नाम सुल्तानपुर रख दिया। उन पांचों गुप्तचरों का शहीद का दर्जा देकर उनकी मजार बनवाई और उन्हें पीर घोषित कर दिया। सुलतानपुर-अयोध्या मार्ग पर शहर से लगता हुआ गांव पांचों पीरन उन्हीं के नाम पर है। हर साल एक बड़ा मेला लगता है। उसमें बड़ी संख्या में हिंदू भी जाते हैं। अज्ञानतावश। हालांकि उन पांचो पीर की हकीकत बयान करने वाली एक लोकोक्ति सुलतानपुर में बहुत प्रचलित है-देखन मां बौरहिया, आवें पांचो पीर। मतलब देखने में बौरहा( भोला-भाला) लेकिन हकीकत में पांचों पीर जैसा धूर्त। एक बात और पांचों की मजारें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अलग-अलग जगह पर हैं। क्योंकि जब पांचों भागे थे तो अलग-अलग जगह पकड़े और मारे गए थे।