अजीब अक्से रूखे शीशये जहाँ निकलें
यहाँ हर शख्स में इक शख्से दीगरां निकले
वफ़ा की बात लिए हम जहाँ जहाँ निकले
जमीनें तप गईं बगलों से आसमां निकले
ये कौन चाँद के रोज़न से झांकता है हमें
ये किसका चेहरा किताबों के दर्मियां निकले
हजार बार चुकाए हिसाबे दारो रसन
मगर सरों पे वही कर्जे इम्तिहाँ निकले
भटक रही है अंधेरे में जिन्दगी सौरभ
नयी सबील नए रास्ते कहाँ निकले
सोमवार, 9 जून 2008
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2 टिप्पणियां:
सुंदर, बेहतरीन ग़ज़ल है.
sir pradeep from delhi jagran
my no is 9818622003
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