मंगलवार, 15 जुलाई 2008

बेरहम यादें

यादें.बहुत खूबसूरत होती हैं.बेरहम भी.लाख छुड़ाओ.पीछा ही नहीं छोड़तीं.सावन आ चुका है.पानी भी यदा-कदा बरस रहा है.दिल्ली की गलियां-नालियां कीचड़ से उफना रहीं हैं.पालिथिन की थैलियों में भरा कचरा नालियों में फेंकते हुए लोग रूटीन में नगर निगम को गालियां दे रहे हैं.सोचता हूं.गांव में बरसता था तो खुशियां लेकर आता था.यहां शामत बन कर आता है.दफ्तर से लौट रहा हूं.पानी की हलकी-हलकी बूंदे गांव की यादों को बजाय धोने के और उभार रहीं हैं.स्मृतिपटल पर बन रहे चित्र ज्यादा स्पष्ट हो चुके हैं.नीम के पेड़ पर झूले पड़ चुके हैं.चाचियां,भाभियां,बहनें व बेटियां कजरी गा रही हैं.हमारी पटी(पट्टी) में बड़की बहिनी गा रही हैं-ऊदल बेंदुल के चढ़वइया वीरन कहिया अउबा न.बहिनी ऊदल की उपमा किसे दे रही हैं. मुझे.मुझे ही दे रही होंगी.छोटा वीरन तो मैं ही हूं.मन में सगर्व अनुभूति होती है.चंदबरदाई के समकालीन कवि जगनिक की आल्हा काव्यकथा के नायक आल्हा के छोटे भाई थे ऊदल.उनके घोड़े का नाम बेंदुल था.बीच वाली पटी से परधानिन भाभी का मधुर कंठ गूंज रहा है-सड़िया लाया बलम कलकतिया,जेहमें हरी-हरी पतिया न.हलकी-हलकी आवाज पूरब पटी से भी आ रही है.लेकिन कंठ पुरुषों के हैं-लछिमन कहां जानकी होइहैं,ऐसी विकट अंधेरिया न.अचानक एक कार बगल से गुजरती है.पैर तो कीचड़ से सने ही थे.वह सारे शरीर पर छींटे मारते हुई आगे निकल जाती है.मैं गांव से वापस लौट आता हूं.शहर में.सामने ही तो मेरा मकान है.