सोमवार, 31 अगस्त 2009

जाल के जरिए जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद

वे रोजी-रोटी हासिल करने के सिलसिले में विदेश में रह रहे हैं। लेकिन उनकी आत्मा भारत में बसती है। सो अंतरजाल पर ब्लॉगिंग के जरिए वे अपनी जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद करते रहते हैं। उनके भीतर कसक है कि हमारी हिंदी अंतरजाल पर किसी अन्य भाषा से कमतर न रहे। बहुत हद तक उन्होंने ब्लॉगिंग की दुनिया में हिंदी को प्रतिष्ठित करने में कामयाबी पाई है। समीर लाल, अनुराग शर्मा, राज भाटिया, राकेश सिंह और बबली जैसे कई ब्लॉगर हैं, जो हिंदी ब्लॉगिंग में नए कीर्तिमान गढ़ रहे हैं।समीरलाल की उड़नतश्तरी कनाडा से जबलपुर तक उड़ रही है। हिंदी का शायद ही ऐसा कोई ब्लॉगर हो, जो अपरिचित हो। बुजुर्ग हो चले समीर पेशे से कंसलटेंट हैं। और कनाडा के एंजेक्स (ओंटारियो) में रहते हैं। हिंदी के हर नए ब्लॉगर को प्रोत्साहित करना उनका शगल है। उन्हें हिंदी ब्लॉगरों का इस कदर स्नेह हासिल है कि अभी कुछ दिन पहले उनकी तबीयत खराब हुई तो पूरा हिंदी ब्लॉग जगत उनकी सलामती की दुआ करने लगा। उनके ब्लाग के बड़ी संख्या में पाठक हैं,जो उनकी लोकप्रियता की मिसाल है। बरेली के अनुराग शर्मा पिट्सबर्ग में रहते हुए भी खुद को बखूबी स्मार्ट इंडियन साबित कर रहे हैं। अच्छा लिखते हैं और कई विषयों की व्यापक जानकारी है। राज भाटिया जरमनी में रहत है। उन्होंने अपने ब्लॉग छोटी-छोटी बातें पर हिंदी के संदर्भ में महात्मा गांधी और महामना मदनमोहन मालवीय की उक्तियां भी लगा रखी हैं। झारखंड के रहने वाले युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर राकेश सिंह अमेरिका में रहते हुए भी हिंदी के उत्थान के लिए चिंतित रहते हैं। अपने ब्लॉग सृजन पर हिंदी की दुर्दशा के बारे में वह बहुत कुछ लिख चुके हैं। उनकी पीड़ा यह है कि हिंदी की स्तरीय पत्रिकाएं बंद होती जा रही हैं। क्वींसलैंड, आस्ट्रेलिया में रह रही हैं ३१ वर्षीय बबली कविता प्रेमी हैं। उनके ब्लॉग गुलदस्ता -ए-शायरी में गजलों के साथ दिए गए चित्र भी खूबसूरत होते हैं। ऐसे विदेश में रह रहे दर्जनों ब्लॉगर हैं, जो अंतरजाल के जरिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद करते रहते हैं।

शनिवार, 29 अगस्त 2009

महान कौन

निसंदेह महान लोग महान होते होंगे। लेकिन केवल वही महान नहीं होते, जो प्रसिद्ध पा जाते हैं। केवल वही महान नहीं होते जो गांधी जी की तरह समाज की चिंता में अपने को पारिवारिक सरोकारों से इस कदर अलग कर लेते हैं, कि उनकी संताने कुंठाग्रस्त हो जाती हैं। वे लोग भी महान होते हैं, जो पारिवारिक सरोकारों के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति सचेत और सजग रहते हैं। भले ही उनका दायरा अपने घर गांव शहर तक ही सीमित रहता हो।मैं अपने बारे में सोचता हूं। पत्रकारिता में होने की वजह से मेरी प्रसिद्धि का दायरा मेरे परिवार के अन्य लोगों की अपेक्षा थोड़ा अधिक है। हालांकि पत्रकारिता का उल्लेख करना भी मेरी धूर्तता है। वास्तव में पत्रकारिता के स्थान पर मुझे नौकरी शब्द का उल्लेख करना चाहिए, जिसकी वजह से मैं अपने पारिवारिक सरोकारों को अकसर उपेक्षित कर देता हूं। कृपया रेखांकित कर लें। परिवार से मेरा तात्पर्य मात्र पत्नी और बच्चों से ही नहीं है। मेरे लिए परिवार का अर्थ मेरे गांव में रहने वाला वह पूरा कुनबा है, जिसमें मेरे दर्जनों भाई हैं, दर्जनों बहने हैं। बुआ हैं, चाचियां हैं, दादा हैं चाचा हैं। भतीजे हैं, भतीजियां हैं और कई पौत्र और पौत्रियां तो हैं, कुछेक प्रपौत्र और प्रपौत्रियां भी हैं। कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि मेरे नौ साल के पुत्र उत्कर्ष भी बेटी दामाद वाले हो चुके हैं। हो चुके हैं नहीं बल्कि पैदा होने से पहले ही चुके थे।मुझसे छोटे मेरे एक भाई हैं, रमेशदत्त तिवारी। अपने पिता की चार संतानों में सबसे छोटे। एक बड़े भाई थे, उनके बाद दो बहनें और फिर रमेश हैं। सुलतानपुर में वकालत करते हैं। चाचा जी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। चाचा जी का निधन तभी हो गया था, जब हम बहुत छोटे थे। हालांकि चाचा जी के पास अच्छी खेती थी। लेकिन वह खुद नौकरी करते थे, इसलिए खेती कराने वाले कोई नहीं था। बड़े पुत्र रामचंद तिवारी में तीनों गुण थे। अक्खड़, फक्कड़ और घुमक्कड़। आर्थिक प्रबंधन तो जानते ही नहीं थे। सो चाचा जी की भेजी रकम और कृषि उपज उन्हें पूरी नहीं पड़ती थी। कर्जा लेने में भी संकोच नहीं करते। लेकिन छोटे भाई और बहनों के प्रति कभी किसी चीज में उन्होंने कोताही नहीं की। सबको पढ़ाया लिखाया। शादी ब्याह किया। चाचा जी इन सब समारोहों में महज एक न्योताहरू की तरह उपस्थित हो जाते थे, बस। रमेश के बीए में पहुंचने तक चाचा जी सेवानिवृत्त होकर घर आ गए। लेकिन घर की आर्थिक हालत तब तक बदहाल हो चुकी थी। जब तनख्वाह से पूरा नहीं पड़ता था तो पेंशन से कैसे पूरा पड़ जाता। रमेश ने बीए के बाद ला किया और फिर सुलतानपुर में वकालत करन लगे। सुबह और छुट्टी वाले दिन खेती के काम देखते। इसका असर यह हुआ कि दो सालों में ही सब कुछ बदल गया। जमीन तो कम थी ही नहीं। उन्नत तरीके से खेती होने लगी तो उपज इतनी होने लगी कि बड़ी मात्रा में अनाज बेचा भी जाने लगा। रमेश मेहनती तो हैं ही, सो उनकी वकालत भी अच्छी चलने लगी। सामाजिक कार्यों में उनकी भागीदारी ने उन्हें लोकप्रियता भी दिला दी। बड़े भाई रामचंद्र ग्राम प्रधान बन गए। लेकिन इस बीच रमेश को कई असहनीय झटके झेलने पड़े। पांच साल के छोटे पुत्र की सड़क हादसे में मौत हो गई। प्रधान भइया की बेटी के पति का निधन हो गया। बड़ी बहिन के पति का असामयिक निधन हो गया। भांजे की पत्नी भी नहीं रही। तीन वर्ष पहले 55 की उम्र में ही प्रधान भइया भी साथ छोड़ गए। बावजूद इतने बड़े सदमों के रमेश कभी विचलित नहीं हुए। अपनी बेटी का विवाह किया। भाई की बेटी का दूसरा विवाह किया। उनके बेटे का विवाह किया। अपने बेटे सुनील को उच्च शिक्षा दिलाई। वह योग पर शोध कर रहा है। अभी हाल ही में रमेश को फिर एक झटका लगा।16 अगस्त को छोटी वाली बहिन के पति की करंट से मौत हो गई। उस बेचारी को भी भगवान ने कई दुख दिए। कुछ साल पहले किशोरावस्था में बेटा मर गया और अब पति ने साथ छोड़ दिया। वह और उसका परिवार लुधियाना में रहता है। रमेश तुरंत लुधियाना पहुंचे। आज यानी 29 अगस्त को रमेश फिर लुधियाना में हैं, क्योंकि जीजा जी की तेरही है। मैं चंडीगढ़ में होते हुए भी नहीं जा पाया। कल जाऊंगा। सोच रहा हूं। देखिए जा भी पाता हूं कि नहीं। कहते हैं वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है, जो सारे घाव भर देता है। बहिन इस सदमे से शायद ही कभी उबर पाए। लेकिन मैं रमेश को जानता हूं। वह जीजा जी के न रहने पर उपजी परिस्थियों को दृष्टिगत रखते हुए बहिन और उसके बच्चों के लिए भविष्य की योजना बनाएंगे। फिर उस क्रियान्वित करने में अपनी तय शुदा भूमिका के अनुरूप पूरा योगदान करेंगे। वह मंगलवार को सुलतानपुर पहुंच कर रोजाना की तरह कचहरी करने लगेंगे। गांव परिवार की सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने से कतराने के लिए इस हादसे का सहारा नहीं लेंगे। मैं समझता हूं कि हम जैसे लोगों की अपेक्षा जो सामाजिक सरोकारों पर अखबारों के पन्ने रंगते हैं, रमेश महान हैं। भले ही उनकी महानता के चर्चे अखबारों में न हों, किताबों में न हों।

सोमवार, 3 अगस्त 2009

देखन मां बौरहिया, आवें पांचो पीर

सुलतानपुर मेरा गृह जनपद । भगवान राम के ज्येष्ठ पुत्र कुश का बसाया हुआ। सन 1094 में तक इसका नाम कुशभवन पुर था। कुतबुद्दीन ऐबक ने सुलतानपुर पर हमला किया और उसके बाद इसका नाम सुल्तानपुर रखा, जो आज तक चला आ रहा है। यह अलग बात है कि हम जैसे कुछ लोग इसे सुलतानपुर कहते हैं। अर्थात सुंदर लताओं से घिरा हुआ (नगर) पुर। एक अति प्राचीन नगर होने के बावजूद सुलतानपुर की सन 1975 के पहले तककोई खास पहचान नहीं थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने देश में आपात काल घोषित किया, उसी दौरान उनके कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी ने सुलतानपुर जनपद की दूसरी लोकसभा सीट अमेठी को अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना। हालांकि वह सन 77 के अपने पहले चुनाव में हार गए। इसके साथ ही सुलतानपुर और अमेठी देश-विदेश में चर्चा का विषय बन गए। संजय गांधी 80 में जीते और उसके बाद से अमेठी उस परिवार का लोकसभा क्षेत्र बन गया। उसके बाद से तो सुलतानपुर और अमेठी को पूरी दुनिया जानने लगी। मेरा आशय आपको सिर्फ सुलतानपुर से परिचित कराना नहीं है। लेकिन जो बात मैं बताना चाहता हूं, उसके लिए सुलतानपुर के बारे में कुछ मूलभूत जानकारी देना आवश्यक था। तराइन के मैदान में मुहम्मद गोरी से पृथ्वीराज चौहान के पराजित हो जाने के बाद उनके परिवार के चार राजकुमार (जो रिश्ते में पृथ्वीराज के भाई थे) भाग निकले। उनका उद्देश्य था कि कुछ दिनों बाद सैन्य शक्ति से लैस होकर फिर गोरी से भिड़ेंगे। वे अज्ञातवास के क्रम में कुशभवन पुर पहुंचे। यहां उस समय भर राजा का शासन था। भर राजा ने उन्हें शरण दी और कुछ रियासतें दे दीं। गोरी के लौट जाने के बाद दिल्ली के तख्त पर बैठे कुतबुद्दीन ऐबक के गुप्तचरों को पृथ्वीराज चौहान के भाग निकले चारो भाइयों और उनके उद्देश्य के बारे में जानकारी थी। सो कुतबुद्दीन ने उनका पता लगाने के लिए गुप्तचरों से कहा। गुप्तचरों की कई टोलियां पूरे देश में निकल पड़ीं। पांच गुप्तचरों की एक टोली सुलतानपुर पहुंची। उल्लेखनीय है कि उसके पहले महमूद गजनवी का आक्रमण देश पर हो चुका था। उसके भांजे सैयद मसूद गाजी को बहराइच में सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू राजाओं ने पराजित किया था और मार गिराया था। उसकी सेना के कुछ सैनिक जो अक्षम हो गए थे वे यहीं रहने लगे थे और बतौर फकीर भिक्षा मांग कर गुजर करते थे। यह बताने का तात्पर्य यह कि कुछ मुस्लिम इन फकीरों के रूप में उस समय अवध में आ चुके थे। कुशभवन पुर में भी एक मुस्लिम बुढिय़ा रहती थी, जो जन्मी तो किसी हिंदू परिवार में थी लेकिन किसी फकीर से शादी कर मुसलमान हो गई थी। पांचों ने उसी बुढिय़ा की झोपड़ी को अपना ठिकाना बनाया। उसके बाद अपना काम शुरू किया। इस बीच सुलतानपुर के राजा के गुप्तचरों को उनके बारे में जानकारी हो गया। उन्होंने उन पांचों को पकडऩा चाहा। पांचों भागे। लेकिन हिंदू सैनिकों ने उन्हें मार गिराया। इस तरह उनका तो अंत हो गया, लेकिन काफी दिनों तक जब वे दिल्ली नहीं पहुंचे और पृथ्वीराज के चारो भाइयों के बारे में भी कोई पता नहीं चला तो दिल्ली से एक गुप्तचार उन पांचों की खोज में रवाना हुआ। चूंकि यह जानकारी थी कि पांचों कुशभवन पुर गए थे। इसलिए वह सीधा सुलतानपुर पहुंचा। उसने भी बुढिय़ा को तलाश कर लिया। क्योंकि नगर में वही एक मात्र गैर हिंदू थी। उसे बुढिय़ा ने सारी घटना बता दी। उसने दिल्ली लौट कर सारी जानकारी ऐबक को दी। ऐबक ने कुशभवन पुर पर आक्रमण किया। हिंदू राजा को पराजय का सामना करना पड़ा। उसने वहां के सारे क्षत्रियों को उनकी जाति पूछ कर मारना शुरू किया। जो भी अपने को चौहान बताता मौत के घाट उतार दिया जाता। इससे बचने के लिए बहुत से चौहान क्षत्रियों ने खुद को चौहान के बजाय वत्सगोत्री बता दिया। अब वे बजगोती कहे जाते हैं। ऐबक ने कुशभवन पुर का नाम सुल्तानपुर रख दिया। उन पांचों गुप्तचरों का शहीद का दर्जा देकर उनकी मजार बनवाई और उन्हें पीर घोषित कर दिया। सुलतानपुर-अयोध्या मार्ग पर शहर से लगता हुआ गांव पांचों पीरन उन्हीं के नाम पर है। हर साल एक बड़ा मेला लगता है। उसमें बड़ी संख्या में हिंदू भी जाते हैं। अज्ञानतावश। हालांकि उन पांचो पीर की हकीकत बयान करने वाली एक लोकोक्ति सुलतानपुर में बहुत प्रचलित है-देखन मां बौरहिया, आवें पांचो पीर। मतलब देखने में बौरहा( भोला-भाला) लेकिन हकीकत में पांचों पीर जैसा धूर्त। एक बात और पांचों की मजारें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अलग-अलग जगह पर हैं। क्योंकि जब पांचों भागे थे तो अलग-अलग जगह पकड़े और मारे गए थे।

रविवार, 26 जुलाई 2009

व्यथित समाज की कुंठित अभिव्यक्ति

हरियाणा में गोत्र अथवा खाप विवाद कोई नया नहीं है। इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश का भी काफी हिस्सा प्रभावित है। इस क्षेत्र में पंचायतें बेहद प्रभावशाली हैं। उनका फैसला अंतिम होता है। हालांकि उनके फैसले भले ही सामाजिक प्रतिबद्धताओं से प्रभावित होते हों, लेकिन वे ज्यादातर कानून के दायरे में नहीं होते हैं। सामाजिक मर्यादाओं को तोडऩे पर पंचायतों का दंड अति भयंकर होता है। और अकसर जानलेवा भी। खाप व गोत्र के सैकड़ोंं युवक-युवतियों को प्रेम करने की सजा अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है। यही नहीं कि सिर्फ खाप या गोत्र में ही प्रेम संबंध वर्जित हों। इसके इतर भी एक कारण है। और उसके मूल में छिपा है सूत्र वाक्य-गांव की बेटी अपनी बेटी। सो गांव में कोई वैवाहिक संबंध नहीं बना सकता । भले ही दोनों पक्ष गैर खाप, गोत्र या जाति हों। यही नहीं यदि एक गांव में पांच खापों के लोग रहते हों तो उन खापों में आपस में वैवाहिक संबंध नहीं बन सकते। भले ही दूसरा पक्ष सैकड़ो मील दूर के गांव का हो। इसके पीछे तर्क यह है कि गांव में जितनी भी खाप के लोग रहते हैं उनके आपस में भाई चारा होता है, सो वह दूसरी खाप की युवती को भी बहिन कहते हैं। अब अगर उसी खाप की युवती उसकी पत्नी बन कर आ जाए तो यह गलत होगा। आपस में जुड़े गांवों पर भी यह बात लागू होती है। अभी कुछ चार दिन पहले जींद जिले के एक युवक वेदपाल को इसकी सजा अपनी जान देकर भुगतनी पड़ी। वेदपाल बगल के गांव में अपना क्लीनिक चलाता था। दोनों गांव आपस में भाईचारे में बंधे थे। लेकिन वेदपाल, उसी गांव की एक युवती से प्यार कर बैठा, जहां उसका क्लीनिक था। दोनों ने घर से भाग कर आर्य समाज मंदिर में विवाह कर लिया। यह गांव की मर्यादा का उल्लंघन था। वेदपाल को गांव वालों ने पीट-पीट कर मार डाला। ऐसी सैकड़ों घटनाएं हो चुकी हैं। कई केस कोर्ट में भी पहुंचे हैं और देश भर मे चर्चा का विषय बने हैं। पंचायतों के इस तरह के फैसलों को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा भी नहीं कि फैसला देने वाले अनपढ़ या जाहिल होते हैं। जान लें कि पंचायतों में बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा प्राप्त युवक भी होते हैं। फिर इस तरह के फैसले क्यों? कालातीत हो चुकी सामाजिक प्रतिबद्धताओं पर इतना जोर क्यों? दरअसल इसके पीछे छिपी वजहों की तलाश के लिए हमें अतीत में झांकना होगा। इस क्षेत्र ने सबसे ज्यादा मुस्लिम आक्रमण झेले हैं। और राजनैतिक पराजय भी। मुस्लिम आक्रमणकारियों से भारतीय राजाओं की पराजय का मूल कारण यह था कि वह उन्हें लाहौर में रोकने के बजाय दिल्ली तक आने देते थे। उन्होंने सारी लड़ाइयां पानीपत या तराइन में लड़ीं। अगर वे लाहौर में लड़ते तो हार जाते तो भी दिल्ली बची रहती और उन्हें फिर चुनौती दे सकते थे। इसके ठीक विपरीत पंचायतों ने सांस्कृतिक मोर्चे पर ज्यादा बुद्धिमानी दिखाई। इस्लाम में दूध के रिश्तों को छोड़ कर वैवाहिक संबंध स्वीकार्य थे। इस तरह का प्रदूषण कहीं अपने समाज में न आ जाए इसलिए इतने सारे प्रतिबंध लगा दिए गए कि रिश्ते तो क्या खाप , गोत्र, गांव अगल-बगल के गांव में भी वैवाहिक संबंध पाप की श्रेणी में आ गया। लोग सामिष भोजन न करें। इसलिए लहसुन प्याज तक वर्जित कर दिया । अब लोग ये वर्जनाएं तोड़ रहे हैं। लहसुन प्याज खा रहे हैं। सामिष भोजन कर रहे हैं। पहले चोरी छिपे ऐसा करते थे, अब उसकी भी जरूरत नहीं समझते। चूंकि खान-पान नितांत वैयक्तिक मामला होता है, इसलिए पंचायतों ने भी उस तरफ चश्मपोशी करना ही बेहतर समझा। लेकिन जब वैवाहिक संबंधों में सामाजिक प्रतिबद्धताओं की अनदेखी होने लगी तो पंचायतों का व्यथित होना स्वाभाविक था। उन्होंने हजारों साल से पीढ़ी-दर-पीढ़ी आखिर जिन रिश्तों की पवित्रता को सहेज कर रखा, आज उसे कैसे तार-तार होते देख सकते हैं। वे ऐसे अपकृत्य को वहशियाना समझते हैं , सो दंड भी वहशियाना होता है। यह एक व्यथित समाज की कुंठित अभिव्यक्ति है, जो कानून से भी टकराने को तैयार रहती है।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

इंसाफ का तराजू

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की गूंज पर देश में सुनाई दे रही है। बात ही कुछ ऐसी ह। एक विक्षिप्त किशोरी का गर्भपात कराए जाने को देश की सबसे बड़ी अदालत ने रोक दिया। जिस खंडपीठ ने यह फैसला दिया उसमें मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन भी शामिल थे। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि किशोरी के बच्चे का पालन पोषण कुदरत करेगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर देश भर में एक बहस छिड़ गई है। इस केस में हाईकोर्ट से चंडीगढ़ प्रशासन से किशोरी के गर्भपात की इजाजत मांगी थी। वह भी किशोरी के मानसिक और शारीरिक बेहतरी के लिए। पूरी नेकनीयती के साथ। हाईकोर्ट में तमाम बहस-मुबाहिसे के बाद इजाजत मिल गई थी। हाईकोर्ट में क्या-क्या हुआ, इसके पहले यह जानना जरूरी है कि यह किशोरी है कौन ? किशोरी सन २००५ में चंडीगढ़ के सेक्टर-२६ थाने के पुलिस जवानों को सड़क पर मिली थी। वे उसे थाने ले गए। वहां से उसे एसडीएम के समक्ष पेश किया गया। एसडीएम के आदेश पर उसे नारी निकेतन भेज दिया गया। तब से युवती वहीं पर थी। अभी हाल ही में वहां से उसे निराश्रितों के लिए बनाए गए एक अन्य स्थल आश्रय में लाया गया। आश्रय में एक दिन उसकी तबीयत बिगड़ गई तो इलाज के लिए मेडिकल कॉलेज में दाखिल हुई। वहां चिकित्सकों ने जांच में पाया कि वह लगभग दस हफ्ते के गर्भ से है। इसके बाद प्रशासन के हाथ पांव फूल गए। क्योंकि आश्रय और नारी-निकेतन दोनों का प्रबंधन और संचालन प्रशासन ही करता है। जाहिर था कि किशोरी के साथ बलात्कार हुआ था। गर्भ के समय से यह भी साफ था कि उन दिनों किशोरी नारी निकेतन में थी। पुलिस में प्राथमिकी दर्ज हुई। पूछताछ में किशोरी ने बताया कि नारी निकेतन में एक महिला उसे चौकीदार के पास ले जाती थी। पुलिस ने भूपेंद्र नाम के उस चौकीदार को गिरफ्तार कर लिया और उसका डीएनए टेस्ट कराने के लिए सैंपल भी ले लिए। जिस महिला के बारे में संदेह था, वह अग्रिम जमानत के लिए हाईकोर्ट चली गई। प्रशासन ने किशोरी की मानसिक स्थित को देखते हुए उसका गर्भपात कराने का फैसला लिया। बाद में कोई बखेडा़ न हो इसलिए प्रशासनिक अधिकारियों ने गर्भपात की इजाजत के लिए पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में अर्जी दी। चूंकि यह अपनी तरह का अनोखा मामला था, इसलिए हाईकोर्ट ने इस केस में राय देने के लिए एक वरिष्ठ अधिवक्ता आरएस चीमा को अपना सहयोगी ( एमिक्स क्यूरी) नियुक्त किया और हरियाणा व पंजाब के महाधिवक्ता से भी कोर्ट में अपने विचार देने के लिए कहा।इस केस की सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने पुलिस की धीमी कार्रवाई पर जम कर फटकार लगाई। आरोपित महिला की अग्रिम जमानत याचिका भी हाई कोर्ट ने खारिज कर दी.।हाईकोर्ट में प्रशासन के अधिवक्ता अनुपम गुप्ता ने कहा कि किशोरी को मां बनने का अहसास तक नहीं है.। उसे रिश्तों के बारे में नहीं पता। ममता का उसे बोध नहीं। उसे इस पर दुख नहीं होता कि उसके साथ बलात्कार हुआ, बल्कि वह इससे दुखी होती है कि उसके कपड़े फट गए। उसकी मानसिक और शारीरिक स्थिति को देखते हुए यही बेहतर होगा कि गर्भपात करा दिया जाए। इस पर हाईकोर्ट ने पूछा भी कि ऐसी स्थिति में प्रशासन को इजाजत लेने की क्या जरूरत थी। इस पर गुप्ता ने कहा कि बाद में कोई बखेड़ा न हो, इसलिए अदालत की इजाजत लेना बेहतर समझा गया।हरियाणा के महाधिवक्ता हवा सिंह हुड्डा ने भी अदालत में राय दी कि कल्याणकारी राज्य होने के नाते प्रशासन को किशोरी के हित में गर्भपात की इजाजत लेने की जरूरत नहीं है। पंजाब के महाधिवक्ता एचएस मत्तेवाल का भी मत था कि मानवीय आधार पर गर्भपात की इजाजत दे देनी चाहिए। लेकिन एमिक्स क्यूरी चीमा की राय इसके विपरीत थी। उनका कहना था कि किशोरी चाहती है तो उसे बच्चे को जन्म देने दिया जाए। गौरतलब है कि पीजीआई के चिकित्सकों की काउंसिलिंग के दौरान किशोरी ने बच्चे को जन्म देने की इच्छा जताई थी। हाईकोर्ट ने सभी पक्षों को सुनने के बाद प्रशासन को एक मेडिकल बोर्ड के गठन का आदेश दिया। इसमें बतौर सदस्य हाईकोर्ट ने अपनी प्रतिनिधि के रूप में चंडीगढ़ की जिला एवं सेशन न्यायाधीश राज राहुल को गर्ग को भी रखा। बोर्ड को किशोरी की मानसिक और शारीरिक स्थिति की जांच करने के बाद यह राय देनी थी कि गर्भपात उसके हित में है या नहीं। और गर्भपात कराया ही जाना है तो उसे बोर्ड के सदस्यों की देखरेख में कराया जाना चाहिए था। बोर्ड की रिपोर्ट आने के बाद एक बार फिर बहस हुई।प्रशासन के वकील अनुपम गुप्ता ने मनोचिकित्सकों की राय का हवाला देते गर्भपात के समर्थन में जोरदार तर्क दिए। लेकिन उतनी ही मजबूती से एमिक्स क्यूरी चीमा की तरफ से उनकी जूनियर तनु बेदी ने भी गर्भपात के विरोध में बहस की। तनु ने कहा कि मां की मानसिक विकलांगता गर्भपात का आधार नहीं हो सकती। उन्होंने तमाम भावनात्मक मुद्दे भी उठाए। बोर्ड के सदस्यों, मनोचिकित्सकों और जानकारों की राय तथा अन्य तथ्यों व बहस में दिए गए तर्कों के आधार पर हाईकोर्ट ने पाया कि गर्भपात ही किशोरी के हित में है और उसने गर्भपात की इजाजत दे दी। इसके खिलाफ कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी और वहां से हाईकोर्ट का फैसला पलट दिया गया। शायद यह देश का पहला बच्चा होगा जो देश की सबसे बड़ी अदालत के आदेश पर जन्म लेगा। लेकिन विडंबना तो यह है कि उस बेचारे की मां विक्षिप्त होगी और बाप जेल में होगा। उसका बाप कौन है, यह जानने के लिए तो फिलहाल २२ लोगों के डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट का इंतजार है।

रविवार, 5 जुलाई 2009

सुल्तानपुर के एक राज परिवार के वंशज हैं बिग बी

आप इसे मेरी एक नई पोस्ट समझ सकते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। दरअसल यह टिप्पणी है, जो मैने सहस्राब्दि के महानायक अमिताभ बच्चन के ब्लाग पर की है। उन्हें उनके पूर्वजों के संबंध में जानकारी देने के लिए।शायद ही किसी को मालूम हो कि बिग बी तेरहवीं शताब्दी में अवध के सुलतानपुर जिले के शासक रहे राय जगत सिहं कायस्थ के वंशज हैं। यह प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्य है। मैं खुद सुलतानपुर का रहने वाला हूं। इसलिए यह बात पूरे दावे के साथ कह सकता हूं। सुलतानपुर जिले के गजेटियर और बिग बी के पिता हिंदी के महान कवि स्वर्गीय हरिवंश राय बच्चन की अमर कृति मधुशाला में उनकी स्वलिखित भूमिका इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। बतौर न्यूज स्टोरी हिंदी के दो बड़े अखबारों में इस संबंध में मेरी बाइलाइन रिपोर्ट काफी पहले छप चुकी हैं। बिग बी यानि अमिताभ बच्चन के पिता हिंदी के महान कवि का पैतृक गांव उत्तरप्रदेश के अवध इलाके के जिले प्रतापगढ़ के बाबू पट्टी गांव में पड़ता है। प्रतापगढ़ जनपद सुल्तानपुर से मिला हुआ है और बाबूपट्टी के कुछ किमी की दूरी के बाद ही सुलतानपुर जिले की सीमा शुरू हो जाती है। राय जगत सिहं के वंशज बस्ती,सुल्तानपुर और प्रतापगढ़ में अमोढ़ा के पांडे कायस्थ के नाम से जाने जाते हैं। सुल्तानपुर गजेटियर के मुताबिक तेरहवीं शताब्दी में सुल्तानपुर के शासक राय जगत सिहं कायस्थ थे। उस समय अवध और आसपास के जनपदों के शासक दिल्ली सल्तनत के अधीन थे। उस समय बस्ती जिले में एक रियासत थी अमोढ़ा। वहां के शासक एक पांडे जी थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। एक कन्या थी, जो अत्यंत रूपवती थी। उधर गोरखपुर जनपद का शासक एक डोम था। उसने अमोढ़ा के पंडित जी संदेश भेजा कि वह उनकी कन्या से विवाह करेगा और तिथि निश्चित करते हुए बताया कि उस दिन बारात लेकर आएगा। पंडित जी की रियासत छोटी थी। डोम शासक की रियासत काफी बड़ी थी। वह काफी शक्ति संपन्न था। पंडित जी उसकी सेना से मुकाबला करते तो निश्चित रूप से हार जाते। काफी सोच विचार के बाद पंडित जी ने सुल्तानपुर के शासक राय जगतसिंह कायस्थ को अपनी व्यथा लिख भेजी। जगत सिहं ने उन्हें संदेश दिया कि डोम राजा को बारात लेकर आने दीजिए। उससे मैं निपट लूंगा। डोम राजा निश्चित तिथि पर अपनी सेना के साथ बारात लेकर चला। लेकिन वह अमोढ़ा पहुंचता , इसके पहले ही जगत सिंह और उनकी सेना ने उसका रास्ता रोक लिया। जगत सिंह ने डोम राजा को युद्ध में पराजित कर दिया। वह मारा गया। इसके बाद जगत सिहं अमोढ़ा पहुंचे। अमोढ़ा के पंडित जी ने जगत सिंह को गले से लगाते हुए उन्हें अपना जनेऊ पहना दिया और कहा-आज से आप मेरे वारिस हैं। आप अमोढ़ा के भी शासक हैं। अब आप कायस्थ नहीं ब्राह्मण हैं। इसके बाद से जगत सिहं सुल्तानपुर और अमोढ़ा दोनों रियासतों के स्वामी हो गए। पांडे जी के वचन के अनुरूप उन्होंने खुद को उनका उत्तराधिकारी मानते हुए मांस-मदिरा का सेवन छोड़ दिया। उनके वंशज अमोढ़ा के पांडे कायस्थ कहे जाने लगे, जिनके खानदान में यह कहा जाता था कि यदि कोई शराब और मांस का सेवन करेगा तो वह कोढी हो जाएगा। जब बच्चन जी ने मधुशाला लिखी तो लोग समझते थे कि वह भयंकर दारूबाज होंगे। लेकिन बच्चन जी कभी शराब को हाथ भी नहीं लगाते थे। अंत में उन्होंने मधुशाला की भूमिका में यह लिख कर स्पष्ट किय कि वह शराब नहीं पीते हैं। उनके खानदान में शराब और मांस का सेवन वर्जित है, क्योंकि वह अमोढ़ा के पांडे कायस्थ हैं और उनके खानदान में यह मान्यता है कि वे लोग शराब और मांस का सेवन करेंगे तो कोढ़ी हो जाएंगे। आप खुद मधुशाला में लिखी बच्चन जी की यह टिप्पणी देख सकते हैं। साथ ही राय जगत सिंह वाली घटना की पुष्टि सुल्तानपुर गजेटियर से कर सकते हैं।

अमर उजाला को धन्यवाद

30 जून के अंक में अमर उजाला के संपादकीय पृष्ठ पर स्तंभ ब्लाग कोना में अभिव्यिक्त को स्थान मिला है। इसमें जातियों के अभ्युदय को लेकर लिखे गए आलेख को प्रकाशित किया गया है। इसके लिए मैं अमर उजाला की संपादकीय टीम में कार्यरत अग्रजों-अनुजों का आभारी हूं।

रविवार, 28 जून 2009

कैसे पनपीं जातियां

जाति व्यवस्था पर कई दशकों से प्रहार हो रहा है। होना भी चाहिए। क्योंकि जाति-संप्रदाय के नाम पर कथित राजनेता और संत-समाज सुधारक अपने निहित स्वार्थ के तहत जो घिनौना खेल खेलते हैं,उससे निजात पाने के लिए जाति मुक्त समाज की स्थापना अति आवश्यक है। लेकिन ऐसा नहीं है कि जाति व्यवस्था के उद्भव के मूल में समाज के विभाजन की सोच छिपी हुई थी। भारतीय जनसंघ के संस्थापक और एकात्म मानववाद के प्रणेता स्वर्गीय दीनदयाल उपाध्याय कहा करते थे कि जाति प्रथा का उद्भव समाज के निरंतर विकास के क्रम में हुआ था। प्राचीन हिंदू वांग्मय में वर्ण व्यवस्था का जिक्र तो है,लेकिन जाति व्यवस्था का नहीं तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.१२.९.२) में कहा गया हैं -
"सर्वं तेजः सामरूप्य हे शाश्वत।
सर्व हेदम् ब्रह्मणा हैव सृष्टम्
ऋग्भ्यो जातं वैश्यम् वर्णमाहू:
यजुर्वेदं क्षत्रियस्याहुर्योनिम् ।
सामवेदो ब्रह्मणनाम् प्रसूति
अर्थात ऋगवेद से वैश्य, यजुर्वेद से क्षत्रिय और सामवेद से ब्राह्मण का जन्म हुआ। इस आधार पर ये भी मन जा सकता हैं कि अथर्ववेद का सम्बन्ध शूद्रों से हैं। जिस प्रकार कोई भी ज्ञानवां व्यक्ति किसी भी वेदों को दुसरे से ऊपर नहीं मान सकता उसी प्रकार उनसे जुड़े वर्ण भी एक दुसरे से ऊपर नहीं हो सकते।
अब फिर वापस आते हैं। उपाध्याय जी की बात पर। दरअसल ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण के लोगों के कर्म एक ही थे। ब्राह्मणों का कार्य समाज को शिक्षित प्रशिक्षित करना था। क्षत्रियों का कार्य समाज की सुरक्षा करना और प्रशासिनक व्यवस्था को संभानलना था।लेकिन शूद्र, जिन्हें मैं शिल्पकार कहना बेहतर समझता हूं,वे अलग-अलग विधाओं में दक्षता हासिल करते थे और समाज को अपना अद्भुत योगदान देते थे। कोई लकड़ी के काम में निष्णात होता था तो कोई लोहे के काम में।सो उनके बच्चे भी घर में हो रहे काम में अपने माता-पिता की मदद करते-करते दक्ष हो जाते।
इस तरह से धीरे-धीरे उनकी एक कम्युनिटी विकसित होने लगी। ठीक वैसे ही जैसे आज ट्रेड यूनियन बन जाती है। लोग अपनी ही कम्युनिटी में में शादी ब्याह करने लगे। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि ज्यादातर पुत्र अपने पिता के कार्य में पारंगत होकर उसी को चुन लेते थे। उनकी पुत्रियां भी उस कार्य में पारंगत हो जाती थीं। इससे अपनी कम्युनिटी में शादी ब्याह करने पर काम काज में तो सुविधा होती ही थी।नई वधू को भी मायके जैसा माहौल मिलता था और वह खुद को एडजस्ट करने में कोई दिक्कत नहीं पाती थी। इसी तरह ब्राह्मणों की कम्युनिटी भी बन गईं। अब आप सोचें कि यदि किसी ब्राह्मण की कन्या किसी क्षत्रिय घऱ में ब्याह कर आ जाती और अपने तरुण पति को युद्ध के लिए प्रयाण करते देखती तो यही कहती कि हे प्राणनाथ,छोड़ो आप युद्ध में क्यों जाते हो। हम भिक्षा मांग कर जीवन यापन कर लेंगे। जबकि क्षत्रिय कन्या अपने पति को अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित करती। कहती, विजय प्राप्त कर आना। मैं प्रतीक्षा करूंगी। क्योंकि वह मायके में यही देखती आई थी कि जब उसके पिता रणभूमि में जाते थे तो मां उनको सजाती थीं। सो इस तरह वर्णों के भीतर जातियों का अभ्युदय का क्रम शुरू हो गया, जो कालांतर में इतना मजबूत हो गया िक उपजातियां अस्तित्व में आ गईं। मेरे कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि जातियों का अभ्युदय तत्कालीन समाज की आवश्यकता थी, जो स्वतः स्फूर्त थी। और इसी व्यवस्था के तहत भारतीय समाज हजारों सालों से प्रगति के मार्ग पर चलता रहा। आज इसका दुरुपयोग हो रहा है तो वह इस व्वयस्था का दोष नहीं है। हां आज की स्थितियां भिन्न हो गई हैं। इसलिए जाति व्यवस्था पर प्रहार कर उसका खात्मा जरूरी हो गया है। लेकिन हमें इसका भी ध्यान रखना होगा कि हम विकल्प में क्या व्यवस्था देंगे और क्या भविष्य में उसका दुरुपयोग नहीं होगा।

सोमवार, 22 जून 2009

छोटी सी लव स्टोरी में कई ट्विस्ट


छोटी सी लव स्टोरी। लेकिन ढेरों ट्विस्ट। इजहार,तकरार,इनकार और इकरार। आगे क्या होगा? हरियाणा के पूर्व उप मुख्य़मंत्री चंद्रमोहन उर्फ चांद मोहम्मद अपनी दूसरी बीवी अनुराधा बाली उर्फ फिजा के कदमों में यूं ही बिछे रहेंगे? या फिर कुछ फिर से कुछ दिन बाद फिजा को तलाक देने का एलान कर देंगे। यह सवाल तब भी उठा था, जब उप मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने हरियाणा की अतिरिक्त महाधिवक्ता अनुराधा बाली से ब्याह रचाया था। तब भी यह बात उन लोगों के गले के नीचे नहीं उतरी थी, जो दोनों के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे। इसीलिए जब चंद्रमोहन दो महीना बीतने से पहले ही अनुराधा को छोड़ कर चले गए तो लोगों को इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ था। तब सबने यही कहा था कि यह तो होना ही था। दरअसल, दोनों को करीब से जानने वालों का दावा है कि दोनों के बीच में प्यार हो न हो, पर भरोसा कतई नहीं है। यह बात तब सच साबित हो गई, जब चांद अपनी फिजा को छोड़कर चले गए। तब फिजा ने उन पर तमाम तरह के लांछन लगाते हुए चंद्रमोहन के सालों पुराने एसएमएस और प्रेम पत्र सार्वजनिक कर दिए। जाहिर है कि कहीं न कहीं उनके मन में आशंका जरूर रही होगी तभी तो उन्होंने उसे सहेजा कर रखा था। दूसरी तरफ चंद्रमोहन को भी यह जानते हुए भी इससे उप मुख्यमंत्री का पद चला जाएगा, उनसे ब्याह रचाने की कौन सी जल्दी पड़ी थी। और जब ब्याह कर ही लिया, धर्म छूट गया, परिवार छूट गया, पद चला गया तो छोड़ क्यों दिया। छोड़ ही नहीं दिया, तमाम सारे आरोप भी लगा दिए। दरअसल, इन सारे सवाल के जवाब उनके लिए बहुत आसान हैं, जो दोनों से जुड़े रहे हैं। चंद्रमोहन जहां एक उच्छृंखल युवराज की तरह हैं, वहीं अनुराधा बेहद मह्त्वाकांक्षी। अनुराधा को लगा कि उनकी मह्त्वाकांक्षा बजरिए चंद्रमोहन पूरी हो सकती है तो चंद्रमोहन को लगा कि अनुराधा उनके मतलब की चीज हैं। दोनों एक दूसरे के कई साल करीब रहे। अनुराधा अधिवक्ता थीं। सो उन्होंने चंद्रमोहन और अपनी अंतरंगता के कुछ सुबूत भी तैयार कर लिए। वह शराब के बाद चंद्रमोहन की दूसरी सबसे बड़ी कमजोरी बन गईं। लेकिन जब चंद्रमोहन को लगा कि कहीं अनुराधा के पास सुरक्षित सुबूत उनके लिए खतरा न बन जाएं तो उन्होंने अनुराधा से ब्याह का प्रस्ताव रख दिया। यहां अनुराधा अपनी नारी सुलभ कोमलता के कारण मात खा गईं और दोनों ने मजहब बदल कर शादी कर ली। तब उन्होंने यह नहीं सोचा कि इस्लाम में तलाक सबसे ज्यादा आसान है। शादी के बाद उनके सुबूत बेमायने हो जाएंगे। और चंद्रमोहन जब चाहेंगे तलाक देकर फि्र अपने घर वापस लौट जाएंगे। हुआ भी वही। पर चंद्रमोहन एक चूक कर गए। अनुराधा के घऱ से निकलने के बाद जब वह विदेश गए तो चंद्रमोहन के नाम वाले पासपोर्ट पर ही। अनुराधा ने इसकी शिकायत कर दी। इसमें चंद्रमोहन सजा पा सकते हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि अनुराधा पैरवी करतीं तो सजा भी हो जाती। फिर चुनाव लड़ने भी लायक नहीं रहते। सो, एक हफ्ते पहले तक फिजा को जिंदगी का काला अध्याय बताने वाले चंद्रमोहन रविवार 14 जून को सुबह फिजा के घर पहुंच गए। उनसे बेपनाह मोहब्बत का दावा करते हुए माफी मांगने लगे। रात नौ बजे बालकनी में उन्हें बाहों में लिए हुए यह एलान करते नजर आए कि फिजा ने हमें माफ कर दिया है। हालांकि अनुराधा ने माफी की बात पर तो हामी भरी पर यह भी साफ कर दिया कि अपनी शिकायतों को बगैर सोचे-विचारे वापस नहीं लेंगी। वैसे भी अनुराधा ने चंद्रमोहन के छोड़ जाने के बाद भी यही कहा था कि चांद उन्हें छोड़ कर नहीं जा सकते। उनके भाई कुलदीप ने उनका अपहरण कराया है। चंद्रमोहन ने अनुराधा के पास लौटने के बाद इसे स्वीकार भी किया। यह बात अलग है कि पहले उन्होंने कहा था वह बच्चे नहीं हैं कि कोई उनका अपहरण कर ले। बहरहाल, यह सब पुरानी बाते हैं। हम तो यही दुआ करेंगे फिजा ताजिंदगी चांद से रोशन होती रहें। वैसे भी चांद ने उन्हें छोड़ा था। उन्होंने नहीं। तभी तो मलेशिया जाने के लिए अपना पासपोर्ट बनवाया तो अपना नाम फिजा और पति का नाम चांद मोहम्मद लिखवाया। चंद्रमोहन के चले जाने के बाद मीडिया के जरिए जो ख्याति और सहानुभूति उन्हें मिली,वह उसे भुनाने से भी नहीं चूकीं। फिल्मों में काम करने के आफऱ तक मिले। टीवी के एक रियलिटी शो में ही भाग लेने मलेशिया जा रही हैं। अब क्या? अब तो दोनों हाथ में लड्डू है। चांद भी मिल गया और ख्याति भी। लेकिन चंद्रमोहन न घर के रहे न घाट के। फिजा अब उन पर भरोसा करेंगी नहीं और अब तो घर वापसी की भी सारी संभावनाएं खत्म हो गईं।

रविवार, 21 जून 2009

अपनों का दुःख

गंगादास जी की कार अपनी अपने दफ्तर के सामने रुकी ही थी कि बल्लू दादा की बोलेरो के ब्रेक चरमराए। गंगादास के दिल में गालियों की गंगा बहने लगी। साला वसूली करने आ गया। अभी चुनाव से पहले तो आधी पेटी लेकर गया था। लेकिन अपने दिल के भावों को बाहर नही आने दिया। चेहरे पर मुस्कराहट चिपकानी ही थी। सो चिपका ली। उनकी मुस्कराहट वैसी ही लग रही थी, जैसे उनका डिनर का आमंत्रण स्वीकार करते समय उनकी स्टेनो की होती है । बोले, बल्लू भाई चलो, भीतर बैठते हैं। और दोनों भीतर बने वातानुकूलित कमरे में चले गए। सोफे पर पसरते हुए बिल्लू दादा ने कहा, सेठ तुम अपन का आदमी है। तुम्हें मालुम है भाई इस बार चुनाव हार गए हैं। साला हम लोगों ने टिकट के लिए ही मादाम को पूरे सौ पेटी दिए थे। हालांकि मादाम की गलती नहीं, वह तो भाई को गरीबों का मसीहा भी बोल गई। पर भाई नही नहीं जीते। पूरे पांच सौ पेटी खर्च कर भी नहीं जीते। साला विधानसभा में दो सौ बूथ होते हैं। सत्तर-अस्सी कैपचर कर लेते थे। रही सही कसर बिरादरी वाले वोट देकर पूरी कर देते थे। पर लोकसभा मे कैपचरिंग हो नहीं पाई और बिरादरी वाले भी दगा दे गए। अब इस हाल में अपनों से ही मदद मांगी जा सकती है। भाई ने बोला है, ज्यादा नहीं आधी पेटी दे दो बस। बिल्लू के शब्द गंगा दास को यों लगे जैसे टायसन ने कलेजे पर घूसा जड़ दिया हो। बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला। आखिर उन्हे अकसर इस तरह की दुश्वारियों से दो-चार होना पड़ता था। थोड़ी दबी आवाज में बोले, बल्लू भाई देखो। भाई ने जो पिछला ठेका दिलवाया था, उसका पेमेंट अटक गया है। अखबार वालों ने हंगामा खड़ा कर दिया था कि हमने बाढ़-पीड़ितों को चावल सपलाई ही नहीं किया है,सारे कागजात फरजी लगाए है। अब जांच अधिकारी क्लीन चिट देने के आधी पेटी मांग रहा है। कहता है मार्च में मुख्यमंत्री जी का जनमदिन है। अभी से जोड़ रहा हूं, हमें भी नौकरी करनी है। गंगादास ने बल्लू के चेहरे पर कुछ इस तरह निगाह डाली, जैसे अपनी गुगली पर एलबीडब्लू की अपील कर रहे हों। लेकिन बल्लू ने उनकी अपील को बेरहमी से ठुकरा दिया, देखो सेठ यह भाई का हुक्म है। बाकी तुम जानो। गंगादास ने देखा कि गुगली कारगर नहीं रही तो सीधे लेगब्रेक फेंक दी। बल्लू दादा भाई तो भगवान हैं। राम हैं। आप उनके हनुमान हो। और हम हनुमान के भक्त हैं। कुछ तो सोचो। बल्लू ने सोचा, मक्खन इसी लिए महंगा हो गया है, लोग खाएं कहां से। सारा तो लगाने में खर्च हो जाता है। पर सेठ की बात अच्छी लगी। बल्लू बल्ले-बल्ले हो गए। बियर का आचमन कर मुंह में चिप्स रखते हुए बोले, सेठ चल तू पैंतीस दे दे। हालांकि ऐसा होगा नहीं पर खुदा न खास्ता कभी भाई पूछ ले तो कहना पचीस दिए थे। दस मै रख लूंगा। साला रेप वाले केस को सेटल करने के लिए अपोजीशन वाले लीडर को देना है। तू अपन का बड़ा भाई है। अपन सोचेगा तेरे बारे में। भाई को बोलेगा। कोई नया -काम दिलवाओ। देख भाई चुनाव भले हार गए हों, लेकिन अब हैं तो सत्तारूढ़ पार्टी में। अपन का, अपन के लोगों का जितना भी नुकसान हुआ है। सब वसूल कर लेंगे। चिंता मत करो, सब भरपाई हो जाएगी। हां उस जांच करने वाले अफसर को मै फोन कर दूंगा पचीस ले ले लेगा। गंगादास के चेहरे पर चमक आ गई। बल्लू को विदा करने बाहर निकल कर सड़क तक आए। ठीक है, दादा शाम को माल पहुंच जाएगा। बल्लू दादा की नीली झंडी लगी बोलेरो में बैठे आधा दर्जन बंदूकधारी छोकरे बियर की खाली बोतलें सीट के नीचे डाल अलर्ट हो चुके थे। गाड़ी के गेट खुले। बल्लू दादा अगली सीट पर विराजमान हुए और बोलेरो स्टार्ट हो गई।

अब बहाना नहीं

बहुत दिनों के बाद आज ब्लाग पर हूं। अब कोशिश होगी कि नियमित रूप से रहूं। ऐसा वादा हालांकि मैं पहले भी कर चुका हूं। लेकिन खरा नहीं उतर पाया। इस बार कोशिश होगी कि अब ऐसा न हो। इसका एक कारण यह भी था कि अभी तक ब्लागिंग के लिए मेरे पास अपना कंप्यूटर या लैपटाप नहीं था। लेकिन अब मैंने लैपटाप खरीद लिया है। इसलिए यह बहाना भी नहीं चल पाएगा। तो इस बार बस इतना ही। कल आप सबसे लंबी बात करूंगा।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

आस क्या वस्तु है.

पांव थकते नहीं आस क्या वस्तु है.
वो मिलेंगे ये विश्वास क्या वस्तु है.
शूल शय्या पे भी कष्ट मिलता नहीं
दर्द सहने का अभ्यास क्या वस्तु है
विष औ अमृत में कुछ भेद रखती नहीं
बावली हो गई प्यास क्या वस्तु है