शनिवार, 14 जून 2008

कोहरे छंटने लगे संत्रास के

सो रहे हैं आज जो नीचे खुले आकाश के
देखना पन्ने बनेंगे एक दिन इतिहास के
धूप दुख की है,मरुथल है जिन्दगी
मर रहें हैं लोग मारे प्यास के
उपवनों में जाइएगा सोच कर
जंतु जहरीले बहुत हैं घास के
प्रतिदान में प्रभात को दे दो दुआ
कोहरे छंटने लगे संत्रास के
दे के दवाएँ सौरभ कोई न लूट ले
हमसफ़र मिलते नहीं विश्वास के

सोमवार, 9 जून 2008

नए रास्ते कहाँ निकलें

अजीब अक्से रूखे शीशये जहाँ निकलें
यहाँ हर शख्स में इक शख्से दीगरां निकले
वफ़ा की बात लिए हम जहाँ जहाँ निकले
जमीनें तप गईं बगलों से आसमां निकले
ये कौन चाँद के रोज़न से झांकता है हमें
ये किसका चेहरा किताबों के दर्मियां निकले
हजार बार चुकाए हिसाबे दारो रसन
मगर सरों पे वही कर्जे इम्तिहाँ निकले
भटक रही है अंधेरे में जिन्दगी सौरभ
नयी सबील नए रास्ते कहाँ निकले

शुक्रवार, 6 जून 2008

जो लबालब गिलास वाले हैं

अलग रहें जो लबालब गिलास वाले हैं
हमारे साथ तो मुद्दत से प्यास वाले हैं
अजीब शहर है लोग प्यार करने वाले
हैं मगर सभी ने लिबासों मे नाग पाले हैं

मैं अपने लहू के धब्बे कहाँ तलाश करूँ
तमाम लोग मुक़द्दस लिबास वाले हैं