सोमवार, 31 अगस्त 2009

जाल के जरिए जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद

वे रोजी-रोटी हासिल करने के सिलसिले में विदेश में रह रहे हैं। लेकिन उनकी आत्मा भारत में बसती है। सो अंतरजाल पर ब्लॉगिंग के जरिए वे अपनी जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद करते रहते हैं। उनके भीतर कसक है कि हमारी हिंदी अंतरजाल पर किसी अन्य भाषा से कमतर न रहे। बहुत हद तक उन्होंने ब्लॉगिंग की दुनिया में हिंदी को प्रतिष्ठित करने में कामयाबी पाई है। समीर लाल, अनुराग शर्मा, राज भाटिया, राकेश सिंह और बबली जैसे कई ब्लॉगर हैं, जो हिंदी ब्लॉगिंग में नए कीर्तिमान गढ़ रहे हैं।समीरलाल की उड़नतश्तरी कनाडा से जबलपुर तक उड़ रही है। हिंदी का शायद ही ऐसा कोई ब्लॉगर हो, जो अपरिचित हो। बुजुर्ग हो चले समीर पेशे से कंसलटेंट हैं। और कनाडा के एंजेक्स (ओंटारियो) में रहते हैं। हिंदी के हर नए ब्लॉगर को प्रोत्साहित करना उनका शगल है। उन्हें हिंदी ब्लॉगरों का इस कदर स्नेह हासिल है कि अभी कुछ दिन पहले उनकी तबीयत खराब हुई तो पूरा हिंदी ब्लॉग जगत उनकी सलामती की दुआ करने लगा। उनके ब्लाग के बड़ी संख्या में पाठक हैं,जो उनकी लोकप्रियता की मिसाल है। बरेली के अनुराग शर्मा पिट्सबर्ग में रहते हुए भी खुद को बखूबी स्मार्ट इंडियन साबित कर रहे हैं। अच्छा लिखते हैं और कई विषयों की व्यापक जानकारी है। राज भाटिया जरमनी में रहत है। उन्होंने अपने ब्लॉग छोटी-छोटी बातें पर हिंदी के संदर्भ में महात्मा गांधी और महामना मदनमोहन मालवीय की उक्तियां भी लगा रखी हैं। झारखंड के रहने वाले युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर राकेश सिंह अमेरिका में रहते हुए भी हिंदी के उत्थान के लिए चिंतित रहते हैं। अपने ब्लॉग सृजन पर हिंदी की दुर्दशा के बारे में वह बहुत कुछ लिख चुके हैं। उनकी पीड़ा यह है कि हिंदी की स्तरीय पत्रिकाएं बंद होती जा रही हैं। क्वींसलैंड, आस्ट्रेलिया में रह रही हैं ३१ वर्षीय बबली कविता प्रेमी हैं। उनके ब्लॉग गुलदस्ता -ए-शायरी में गजलों के साथ दिए गए चित्र भी खूबसूरत होते हैं। ऐसे विदेश में रह रहे दर्जनों ब्लॉगर हैं, जो अंतरजाल के जरिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने की जद्दोजहद करते रहते हैं।

शनिवार, 29 अगस्त 2009

महान कौन

निसंदेह महान लोग महान होते होंगे। लेकिन केवल वही महान नहीं होते, जो प्रसिद्ध पा जाते हैं। केवल वही महान नहीं होते जो गांधी जी की तरह समाज की चिंता में अपने को पारिवारिक सरोकारों से इस कदर अलग कर लेते हैं, कि उनकी संताने कुंठाग्रस्त हो जाती हैं। वे लोग भी महान होते हैं, जो पारिवारिक सरोकारों के साथ ही सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति सचेत और सजग रहते हैं। भले ही उनका दायरा अपने घर गांव शहर तक ही सीमित रहता हो।मैं अपने बारे में सोचता हूं। पत्रकारिता में होने की वजह से मेरी प्रसिद्धि का दायरा मेरे परिवार के अन्य लोगों की अपेक्षा थोड़ा अधिक है। हालांकि पत्रकारिता का उल्लेख करना भी मेरी धूर्तता है। वास्तव में पत्रकारिता के स्थान पर मुझे नौकरी शब्द का उल्लेख करना चाहिए, जिसकी वजह से मैं अपने पारिवारिक सरोकारों को अकसर उपेक्षित कर देता हूं। कृपया रेखांकित कर लें। परिवार से मेरा तात्पर्य मात्र पत्नी और बच्चों से ही नहीं है। मेरे लिए परिवार का अर्थ मेरे गांव में रहने वाला वह पूरा कुनबा है, जिसमें मेरे दर्जनों भाई हैं, दर्जनों बहने हैं। बुआ हैं, चाचियां हैं, दादा हैं चाचा हैं। भतीजे हैं, भतीजियां हैं और कई पौत्र और पौत्रियां तो हैं, कुछेक प्रपौत्र और प्रपौत्रियां भी हैं। कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि मेरे नौ साल के पुत्र उत्कर्ष भी बेटी दामाद वाले हो चुके हैं। हो चुके हैं नहीं बल्कि पैदा होने से पहले ही चुके थे।मुझसे छोटे मेरे एक भाई हैं, रमेशदत्त तिवारी। अपने पिता की चार संतानों में सबसे छोटे। एक बड़े भाई थे, उनके बाद दो बहनें और फिर रमेश हैं। सुलतानपुर में वकालत करते हैं। चाचा जी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। चाचा जी का निधन तभी हो गया था, जब हम बहुत छोटे थे। हालांकि चाचा जी के पास अच्छी खेती थी। लेकिन वह खुद नौकरी करते थे, इसलिए खेती कराने वाले कोई नहीं था। बड़े पुत्र रामचंद तिवारी में तीनों गुण थे। अक्खड़, फक्कड़ और घुमक्कड़। आर्थिक प्रबंधन तो जानते ही नहीं थे। सो चाचा जी की भेजी रकम और कृषि उपज उन्हें पूरी नहीं पड़ती थी। कर्जा लेने में भी संकोच नहीं करते। लेकिन छोटे भाई और बहनों के प्रति कभी किसी चीज में उन्होंने कोताही नहीं की। सबको पढ़ाया लिखाया। शादी ब्याह किया। चाचा जी इन सब समारोहों में महज एक न्योताहरू की तरह उपस्थित हो जाते थे, बस। रमेश के बीए में पहुंचने तक चाचा जी सेवानिवृत्त होकर घर आ गए। लेकिन घर की आर्थिक हालत तब तक बदहाल हो चुकी थी। जब तनख्वाह से पूरा नहीं पड़ता था तो पेंशन से कैसे पूरा पड़ जाता। रमेश ने बीए के बाद ला किया और फिर सुलतानपुर में वकालत करन लगे। सुबह और छुट्टी वाले दिन खेती के काम देखते। इसका असर यह हुआ कि दो सालों में ही सब कुछ बदल गया। जमीन तो कम थी ही नहीं। उन्नत तरीके से खेती होने लगी तो उपज इतनी होने लगी कि बड़ी मात्रा में अनाज बेचा भी जाने लगा। रमेश मेहनती तो हैं ही, सो उनकी वकालत भी अच्छी चलने लगी। सामाजिक कार्यों में उनकी भागीदारी ने उन्हें लोकप्रियता भी दिला दी। बड़े भाई रामचंद्र ग्राम प्रधान बन गए। लेकिन इस बीच रमेश को कई असहनीय झटके झेलने पड़े। पांच साल के छोटे पुत्र की सड़क हादसे में मौत हो गई। प्रधान भइया की बेटी के पति का निधन हो गया। बड़ी बहिन के पति का असामयिक निधन हो गया। भांजे की पत्नी भी नहीं रही। तीन वर्ष पहले 55 की उम्र में ही प्रधान भइया भी साथ छोड़ गए। बावजूद इतने बड़े सदमों के रमेश कभी विचलित नहीं हुए। अपनी बेटी का विवाह किया। भाई की बेटी का दूसरा विवाह किया। उनके बेटे का विवाह किया। अपने बेटे सुनील को उच्च शिक्षा दिलाई। वह योग पर शोध कर रहा है। अभी हाल ही में रमेश को फिर एक झटका लगा।16 अगस्त को छोटी वाली बहिन के पति की करंट से मौत हो गई। उस बेचारी को भी भगवान ने कई दुख दिए। कुछ साल पहले किशोरावस्था में बेटा मर गया और अब पति ने साथ छोड़ दिया। वह और उसका परिवार लुधियाना में रहता है। रमेश तुरंत लुधियाना पहुंचे। आज यानी 29 अगस्त को रमेश फिर लुधियाना में हैं, क्योंकि जीजा जी की तेरही है। मैं चंडीगढ़ में होते हुए भी नहीं जा पाया। कल जाऊंगा। सोच रहा हूं। देखिए जा भी पाता हूं कि नहीं। कहते हैं वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है, जो सारे घाव भर देता है। बहिन इस सदमे से शायद ही कभी उबर पाए। लेकिन मैं रमेश को जानता हूं। वह जीजा जी के न रहने पर उपजी परिस्थियों को दृष्टिगत रखते हुए बहिन और उसके बच्चों के लिए भविष्य की योजना बनाएंगे। फिर उस क्रियान्वित करने में अपनी तय शुदा भूमिका के अनुरूप पूरा योगदान करेंगे। वह मंगलवार को सुलतानपुर पहुंच कर रोजाना की तरह कचहरी करने लगेंगे। गांव परिवार की सारी जिम्मेदारियों को पूरा करने से कतराने के लिए इस हादसे का सहारा नहीं लेंगे। मैं समझता हूं कि हम जैसे लोगों की अपेक्षा जो सामाजिक सरोकारों पर अखबारों के पन्ने रंगते हैं, रमेश महान हैं। भले ही उनकी महानता के चर्चे अखबारों में न हों, किताबों में न हों।

सोमवार, 3 अगस्त 2009

देखन मां बौरहिया, आवें पांचो पीर

सुलतानपुर मेरा गृह जनपद । भगवान राम के ज्येष्ठ पुत्र कुश का बसाया हुआ। सन 1094 में तक इसका नाम कुशभवन पुर था। कुतबुद्दीन ऐबक ने सुलतानपुर पर हमला किया और उसके बाद इसका नाम सुल्तानपुर रखा, जो आज तक चला आ रहा है। यह अलग बात है कि हम जैसे कुछ लोग इसे सुलतानपुर कहते हैं। अर्थात सुंदर लताओं से घिरा हुआ (नगर) पुर। एक अति प्राचीन नगर होने के बावजूद सुलतानपुर की सन 1975 के पहले तककोई खास पहचान नहीं थी। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने देश में आपात काल घोषित किया, उसी दौरान उनके कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी ने सुलतानपुर जनपद की दूसरी लोकसभा सीट अमेठी को अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना। हालांकि वह सन 77 के अपने पहले चुनाव में हार गए। इसके साथ ही सुलतानपुर और अमेठी देश-विदेश में चर्चा का विषय बन गए। संजय गांधी 80 में जीते और उसके बाद से अमेठी उस परिवार का लोकसभा क्षेत्र बन गया। उसके बाद से तो सुलतानपुर और अमेठी को पूरी दुनिया जानने लगी। मेरा आशय आपको सिर्फ सुलतानपुर से परिचित कराना नहीं है। लेकिन जो बात मैं बताना चाहता हूं, उसके लिए सुलतानपुर के बारे में कुछ मूलभूत जानकारी देना आवश्यक था। तराइन के मैदान में मुहम्मद गोरी से पृथ्वीराज चौहान के पराजित हो जाने के बाद उनके परिवार के चार राजकुमार (जो रिश्ते में पृथ्वीराज के भाई थे) भाग निकले। उनका उद्देश्य था कि कुछ दिनों बाद सैन्य शक्ति से लैस होकर फिर गोरी से भिड़ेंगे। वे अज्ञातवास के क्रम में कुशभवन पुर पहुंचे। यहां उस समय भर राजा का शासन था। भर राजा ने उन्हें शरण दी और कुछ रियासतें दे दीं। गोरी के लौट जाने के बाद दिल्ली के तख्त पर बैठे कुतबुद्दीन ऐबक के गुप्तचरों को पृथ्वीराज चौहान के भाग निकले चारो भाइयों और उनके उद्देश्य के बारे में जानकारी थी। सो कुतबुद्दीन ने उनका पता लगाने के लिए गुप्तचरों से कहा। गुप्तचरों की कई टोलियां पूरे देश में निकल पड़ीं। पांच गुप्तचरों की एक टोली सुलतानपुर पहुंची। उल्लेखनीय है कि उसके पहले महमूद गजनवी का आक्रमण देश पर हो चुका था। उसके भांजे सैयद मसूद गाजी को बहराइच में सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू राजाओं ने पराजित किया था और मार गिराया था। उसकी सेना के कुछ सैनिक जो अक्षम हो गए थे वे यहीं रहने लगे थे और बतौर फकीर भिक्षा मांग कर गुजर करते थे। यह बताने का तात्पर्य यह कि कुछ मुस्लिम इन फकीरों के रूप में उस समय अवध में आ चुके थे। कुशभवन पुर में भी एक मुस्लिम बुढिय़ा रहती थी, जो जन्मी तो किसी हिंदू परिवार में थी लेकिन किसी फकीर से शादी कर मुसलमान हो गई थी। पांचों ने उसी बुढिय़ा की झोपड़ी को अपना ठिकाना बनाया। उसके बाद अपना काम शुरू किया। इस बीच सुलतानपुर के राजा के गुप्तचरों को उनके बारे में जानकारी हो गया। उन्होंने उन पांचों को पकडऩा चाहा। पांचों भागे। लेकिन हिंदू सैनिकों ने उन्हें मार गिराया। इस तरह उनका तो अंत हो गया, लेकिन काफी दिनों तक जब वे दिल्ली नहीं पहुंचे और पृथ्वीराज के चारो भाइयों के बारे में भी कोई पता नहीं चला तो दिल्ली से एक गुप्तचार उन पांचों की खोज में रवाना हुआ। चूंकि यह जानकारी थी कि पांचों कुशभवन पुर गए थे। इसलिए वह सीधा सुलतानपुर पहुंचा। उसने भी बुढिय़ा को तलाश कर लिया। क्योंकि नगर में वही एक मात्र गैर हिंदू थी। उसे बुढिय़ा ने सारी घटना बता दी। उसने दिल्ली लौट कर सारी जानकारी ऐबक को दी। ऐबक ने कुशभवन पुर पर आक्रमण किया। हिंदू राजा को पराजय का सामना करना पड़ा। उसने वहां के सारे क्षत्रियों को उनकी जाति पूछ कर मारना शुरू किया। जो भी अपने को चौहान बताता मौत के घाट उतार दिया जाता। इससे बचने के लिए बहुत से चौहान क्षत्रियों ने खुद को चौहान के बजाय वत्सगोत्री बता दिया। अब वे बजगोती कहे जाते हैं। ऐबक ने कुशभवन पुर का नाम सुल्तानपुर रख दिया। उन पांचों गुप्तचरों का शहीद का दर्जा देकर उनकी मजार बनवाई और उन्हें पीर घोषित कर दिया। सुलतानपुर-अयोध्या मार्ग पर शहर से लगता हुआ गांव पांचों पीरन उन्हीं के नाम पर है। हर साल एक बड़ा मेला लगता है। उसमें बड़ी संख्या में हिंदू भी जाते हैं। अज्ञानतावश। हालांकि उन पांचो पीर की हकीकत बयान करने वाली एक लोकोक्ति सुलतानपुर में बहुत प्रचलित है-देखन मां बौरहिया, आवें पांचो पीर। मतलब देखने में बौरहा( भोला-भाला) लेकिन हकीकत में पांचों पीर जैसा धूर्त। एक बात और पांचों की मजारें थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अलग-अलग जगह पर हैं। क्योंकि जब पांचों भागे थे तो अलग-अलग जगह पकड़े और मारे गए थे।