रविवार, 26 जुलाई 2009
व्यथित समाज की कुंठित अभिव्यक्ति
हरियाणा में गोत्र अथवा खाप विवाद कोई नया नहीं है। इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश का भी काफी हिस्सा प्रभावित है। इस क्षेत्र में पंचायतें बेहद प्रभावशाली हैं। उनका फैसला अंतिम होता है। हालांकि उनके फैसले भले ही सामाजिक प्रतिबद्धताओं से प्रभावित होते हों, लेकिन वे ज्यादातर कानून के दायरे में नहीं होते हैं। सामाजिक मर्यादाओं को तोडऩे पर पंचायतों का दंड अति भयंकर होता है। और अकसर जानलेवा भी। खाप व गोत्र के सैकड़ोंं युवक-युवतियों को प्रेम करने की सजा अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है। यही नहीं कि सिर्फ खाप या गोत्र में ही प्रेम संबंध वर्जित हों। इसके इतर भी एक कारण है। और उसके मूल में छिपा है सूत्र वाक्य-गांव की बेटी अपनी बेटी। सो गांव में कोई वैवाहिक संबंध नहीं बना सकता । भले ही दोनों पक्ष गैर खाप, गोत्र या जाति हों। यही नहीं यदि एक गांव में पांच खापों के लोग रहते हों तो उन खापों में आपस में वैवाहिक संबंध नहीं बन सकते। भले ही दूसरा पक्ष सैकड़ो मील दूर के गांव का हो। इसके पीछे तर्क यह है कि गांव में जितनी भी खाप के लोग रहते हैं उनके आपस में भाई चारा होता है, सो वह दूसरी खाप की युवती को भी बहिन कहते हैं। अब अगर उसी खाप की युवती उसकी पत्नी बन कर आ जाए तो यह गलत होगा। आपस में जुड़े गांवों पर भी यह बात लागू होती है। अभी कुछ चार दिन पहले जींद जिले के एक युवक वेदपाल को इसकी सजा अपनी जान देकर भुगतनी पड़ी। वेदपाल बगल के गांव में अपना क्लीनिक चलाता था। दोनों गांव आपस में भाईचारे में बंधे थे। लेकिन वेदपाल, उसी गांव की एक युवती से प्यार कर बैठा, जहां उसका क्लीनिक था। दोनों ने घर से भाग कर आर्य समाज मंदिर में विवाह कर लिया। यह गांव की मर्यादा का उल्लंघन था। वेदपाल को गांव वालों ने पीट-पीट कर मार डाला। ऐसी सैकड़ों घटनाएं हो चुकी हैं। कई केस कोर्ट में भी पहुंचे हैं और देश भर मे चर्चा का विषय बने हैं। पंचायतों के इस तरह के फैसलों को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा भी नहीं कि फैसला देने वाले अनपढ़ या जाहिल होते हैं। जान लें कि पंचायतों में बड़ी संख्या में उच्च शिक्षा प्राप्त युवक भी होते हैं। फिर इस तरह के फैसले क्यों? कालातीत हो चुकी सामाजिक प्रतिबद्धताओं पर इतना जोर क्यों? दरअसल इसके पीछे छिपी वजहों की तलाश के लिए हमें अतीत में झांकना होगा। इस क्षेत्र ने सबसे ज्यादा मुस्लिम आक्रमण झेले हैं। और राजनैतिक पराजय भी। मुस्लिम आक्रमणकारियों से भारतीय राजाओं की पराजय का मूल कारण यह था कि वह उन्हें लाहौर में रोकने के बजाय दिल्ली तक आने देते थे। उन्होंने सारी लड़ाइयां पानीपत या तराइन में लड़ीं। अगर वे लाहौर में लड़ते तो हार जाते तो भी दिल्ली बची रहती और उन्हें फिर चुनौती दे सकते थे। इसके ठीक विपरीत पंचायतों ने सांस्कृतिक मोर्चे पर ज्यादा बुद्धिमानी दिखाई। इस्लाम में दूध के रिश्तों को छोड़ कर वैवाहिक संबंध स्वीकार्य थे। इस तरह का प्रदूषण कहीं अपने समाज में न आ जाए इसलिए इतने सारे प्रतिबंध लगा दिए गए कि रिश्ते तो क्या खाप , गोत्र, गांव अगल-बगल के गांव में भी वैवाहिक संबंध पाप की श्रेणी में आ गया। लोग सामिष भोजन न करें। इसलिए लहसुन प्याज तक वर्जित कर दिया । अब लोग ये वर्जनाएं तोड़ रहे हैं। लहसुन प्याज खा रहे हैं। सामिष भोजन कर रहे हैं। पहले चोरी छिपे ऐसा करते थे, अब उसकी भी जरूरत नहीं समझते। चूंकि खान-पान नितांत वैयक्तिक मामला होता है, इसलिए पंचायतों ने भी उस तरफ चश्मपोशी करना ही बेहतर समझा। लेकिन जब वैवाहिक संबंधों में सामाजिक प्रतिबद्धताओं की अनदेखी होने लगी तो पंचायतों का व्यथित होना स्वाभाविक था। उन्होंने हजारों साल से पीढ़ी-दर-पीढ़ी आखिर जिन रिश्तों की पवित्रता को सहेज कर रखा, आज उसे कैसे तार-तार होते देख सकते हैं। वे ऐसे अपकृत्य को वहशियाना समझते हैं , सो दंड भी वहशियाना होता है। यह एक व्यथित समाज की कुंठित अभिव्यक्ति है, जो कानून से भी टकराने को तैयार रहती है।
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9 टिप्पणियां:
जिस नियम से समाज को फायदा हो .. उसे जारी रखने में कोई बुराई नहीं .. पर जिस नियम से समाज कुंठाग्रस्त ही हो जाए .. उस नियम के पालन का क्या औचित्य ?
आपका लेख प्रभापुर्ण है। अगर हमारे समाज मे एसे नियम जो की हमे फायदे पहुचाते है, तब तो कोइ बात नही, लेकिन अगर वह मानवता के खिलाफ है, तो उसे समाज बाहर निकाल देना चाहिये।।
आपने अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया।
सार्थक आलेख..जरुरी था.
यह समस्या तो है. हमारी पीढी के लोग इस बात को मानते थे. या कहें कि यह बात घुटी मे पिलाई जाती थी. अब परिवेश बदल रहा है. आपने बहुत गहराई मे जाकर इसका विष्लेषण किया. बहुत आभार आपका.
रामराम.
चोटाला जी गाँव सिवाह पहुंचें. अपने मजाकिया अंदाज में बोले, छोरों इब के सरकार बना दयो, थ्यारी चिंता दूर कर दूंगा. मन्ने बैरा सै थम पे क्या बीत रही सै. अब उनको समझाना पड़ेगा की वैसे ही दूध दही के परदेश में बेटियों को कोख में मार दिया जाता है. रिश्ते कहाँ से होंगे. अब अगर प्रेम करते है तो जान से जातें हैं...उनके पास कोई जादू की छड़ी है तो कुछ कह नहीं सकते......छोरों ने तो चांस हुड्डा जी को दे दिया था, बात नहीं बनी...अब देखते है क्या होता है.....
सतही तौर पर तो लेख बड़ा अच्छा लग रहा है परन्तु जड़ में लेखक नहीं गया है. समस्या यह नहीं की पंचयत ने फैसला गलत किया है. समस्या यह है की शहरों में तो लोगो का कुछ पता नहीं परन्तु जो गाव में रहेते है उन्हें तो पता है की कालान्तर में यह तो भाई बहेन ही है. अब अपना पिछला अतीत भुला कर अपनी ही बहेन को आप धरमपत्नी बनाने पर उतारू हो गए हो और पंचायत को ही गाली दे रहे हो. जब आपको पता है की एक ही गौत्र और खाप में विवाह नहीं हो सकता तो तब आप अपनी ही बहेन से विवाह क्यों करते हो. अब छत्तीस गौत्र है एक को छोड कर कही भी कर सकते हो. कल को आप अपनी मामा की लड़की से कहोगे फिर बुआ की लड़की से तब तो फिर समाज में नंगे हो कर घुमो कपडे भी क्यों पेहेनते हो. पंचयत की तौर तरीके से विरोध हो सकता है परन्तु उसके बनाये कानून खानदान को पहचानने के कारन है. सब जानते है उसके बाप का बाप और उसका बाप उसका चाचा था तब फिर उसकी बेटी तो उसकी बहेन हुई इस में गलत क्या है. जबरदस्ती प्रगतिशीलता का ढोंग मत करो. पंचायत का कानून इस रिश्ते के पीछे विज्ञानिकता को बता ता है. आज की साइंस भी इस तरेह के रिश्ते होने पर बच्चो में जन्मजात कमियो के कारन को मानती है. सो पंचायत के पीछे लठ लेकर मत भागो. इस में आपका ही हित है. http://parshuram27.blogspot.com/2009/07/blog-post_26.html
इसमें कोई शक नहीं की लड़को को पिट-पिट कर मार देना एक अमनुविय घटना है | इसे कहीं अच्छे तरीके से निपटा जा सकता था | लड़का-लड़की यदि थोडा धैर्य रखते तो कुछ हल निकल जाता |
जिंतनी बड़ी भूल लड़के इ नहीं की उससे बड़ी भूल पंचायत ने की | पंचायत को गहरा मंथन कर एक उपाय निकालना होगा नहीं तो पंचायत कहीं का नहीं रहेगा |
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है आपने! अब तो मैं आपका फोल्लोवेर बन गई हूँ इसलिए आती रहूंगी!मेरे ब्लोगों पर भी आपका स्वागत है!
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